Friday 28 October 2016

मन को शान्त करनी ही चुनौती हैं

🌹 एक बार एक किसान था, जिसने अपनी घड़ी चारे से भरे हुए बाड़े में खो दी थी। वह घड़ी बहुत कीमती थी इसलिए किसान ने उसकी बहुत खोजबीन की पर वह घड़ी नहीं मिली। बाहर कुछ बच्चे खेल रहे थे और किसान को दूसरा काम भी था, उसने सोचा क्यों न मैं इन बच्चों से घड़ी को खोजने के लिए कहूं। उसने बच्चों से कहा कि जो भी बच्चा उसे घड़ी खोजकर देगा उसे वह अच्छा ईनाम देगा।
यह सुनकर बच्चे ईनाम के लालच में, बाड़े के अन्दर दौड गए और यहां वहां घड़ी ढूंढने लगे। लेकिन किसी भी बच्चे को घड़ी नहीं मिली। तब एक बच्चे ने किसान के पास जाकर कहा कि वह घड़ी खोजकर ला सकता है पर सारे बच्चों को बाड़े से बाहर जाना होगा। किसान ने उसकी बात मान ली और किसान और बाकी सभी बच्चे बाड़े के बाहर चले गए। कुछ देर बाद बच्चा लौट आया और वह कीमती घड़ी उसके हाथ में थी। किसान अपनी घड़ी देखकर बहुत खुश और आश्चर्यचकित हो गया। उसने बच्चे से पूछा “तुमने घड़ी किस तरह खोजी जबकि बाकी बच्चे और मैं खुद इस काम में नाकाम हो चुका था।”
बच्चे ने जवाब दिया “मैंने कुछ नहीं किया, बस शांत मन से ज़मीन पर बैठ गया और घड़ी के आवाज़ सुनने की कोशिश करने लगा क्यों कि बाड़े में शांति थी इसलिए मैंने उसकी आवाज़ सुन ली और उसी दिशा में देखा।"
*➡ सीख मिलती है कि —*
एक शांत दिमाग बेहतर सोच सकता है, एक थके हुए दिमाग की तुलना में।
*दिन में कुछ समय के लिए, आँखें बंद करके शांति से बैठिये।*
अपने मष्तिष्क को शांत होने दीजिये फिर देखिये वह आपकी ज़िन्दगी को किस तरह से व्यवस्थित कर देता है।
आत्मा हमेशा अपने आपको ठीक करना जानती है।
*बस मन को शांत करना ही चुनौती है।*
💐💐💐💐💐💐: 🌱🌱🌱🌱 ,🌿🌿🌿🌿🌿😊😊,,हम सब खुश रहे ,प्रसन्न रहे ,प्रेम भाव बना रहे ,यही प्रभु से कामना है ।

Thursday 27 October 2016

मेरी पीड़ा .....

यों तो समष्टि की पीड़ा मेरी ही पीड़ा है, पर भारतवर्ष की पीड़ा विशेष रूप से मेरी पीड़ा है, क्योंकि धर्म, आध्यात्म और परमात्मा की सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारतवर्ष में ही हुई है| भारतवर्ष की उन्नति मेरी उन्नति है और मेरी उन्नति पूरे भारतवर्ष की उन्नति है| पूरा भारतवर्ष दुखी है तो मैं दुखी हूँ, और मैं सुखी हूँ तो पूरा भारतवर्ष सुखी है| मेरी चेतना का विस्तार ही पूरे भारतवर्ष की चेतना का विस्तार है| भारतवर्ष में धर्म और संस्कृति के ह्रास और पतन से मैं बहुत व्यथित हूँ, मेरी भावनाएँ बहुत अधिक आहत हैं, और यह मेरा ही पतन है|
.
मैं यह लेख आप सब विभिन्न देहों में व्यक्त मेरी ही निजात्माओं के लिए लिख रहा हूँ| वैसे तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और सृष्टि आप ही हैं| सारे नक्षत्रमंडल, ग्रह , उपग्रह और विश्व आप की ही अभिव्यक्ति हैं| आप यह देह नहीं, सर्वव्यापी शाश्वत आत्मा हैं और परमात्मा के दिव्य अमृत पुत्र हैं|
.
भारतवर्ष का आप पर एक विशेष ऋण है जो आप को चुकाना ही पडेगा क्योंकि यह भागवत चेतना आपको भारतवर्ष ने ही दी है|
.
पूरी सृष्टि में इस पृथ्वी का एक विशिष्ट स्थान है और इस पृथ्वी पर भारतवर्ष का एक विशेष स्थान है क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र है और परमात्मा की सर्वाधिक उपस्थिति भारतवर्ष में ही है| भारत वर्ष में भी आपका ही एक विशिष्ट स्थान है|
.
सारी सृष्टि का भविष्य इस पृथ्वी पर है, इस पृथ्वी का भविष्य भारतवर्ष व सनातन हिन्दू धर्म पर है और भारतवर्ष व सनातन हिन्दू धर्म का भविष्य आप पर निर्भर है|
और भी स्पष्ट शब्दों में आप पर ही पूरी सृष्टि का भविष्य निर्भर है|
.
हर प्राणी में परम सत्ता का अस्तित्व है, आवश्यकता है उसे पहिचानने व योग साधना द्वारा जागृत कर लोक कल्याण के मार्ग पर मोड़ देने की| राष्ट्र के उत्थान में समष्टि के उत्थान के सूत्र जुड़े हैं, और समष्टि के कल्याण से व्यक्ति के कल्याण के सूत्र जुड़े हैं| संसार से मुंह मोड़ना मोक्ष का मार्ग नहीं है| जो निर्वाण चाहते हैं, वे सांसारिक कर्मों को अवसर देते हैं कि वे मुक्ति का मार्ग बन जाएं| यह संसार भी एक चेतना है, सभी प्राणियों में ईश्वर का सूक्ष्म अस्तित्व है| मनुष्य की क्रियाओं का संचालन परमसत्ता से आदेशित है इसलिए वे भी आध्यात्मिक उपलब्धि का साधन बन सकती हैं जो योग साधना के द्वारा संभव है|
.
संपूर्ण दर्शन का सार या निचोड़ है ..... योग साधना के माध्यम से, व्यक्ति अपना आंतरिक विकास करे, और अपने ही अंदर की मानसिक चेतना से ऐसी उच्चतर, आध्यात्मिक व अतिमानसिक चेतना को विकसित करे जो मानव प्रकृति को रूपांतरित कर उसे दिव्य बना दे| इसी में जीवन की पूर्णता है, इसी में भागवत चेतना से मिलन है|
.
हे जन्म भूमि भारत, हे कर्म भूमि भारत
हे वन्दनीय भारत अभिनंदनीय भारत
जीवन सुमन चढ़ाकर आराधना करेंगे
तेरी जनम-जनम भर, हम वंदना करेंगे
हम अर्चना करेंगे ||१||
महिमा महान तू है, गौरव निधान तू है
तू प्राण है हमारी जननी समान तू है
तेरे लिए जियेंगे,तेरे लिए मरेंगे
तेरे लिए जनम भर हम साधना करेंगे
हम अर्चना करेंगे ||२||
जिसका मुकुट हिमालय, जग जगमगा रहा है
सागर जिसे रतन की,अंजुली चढा रहा है
वह देश है हमारा,ललकार कर कहेंगे
इस देश के बिना हम,जीवित नहीं रहेंगे
हम अर्चना करेंगे ||३||
(संघ का एक गीत)
.
ॐ तत्सत् | आप सब दिव्यात्माओं को नमन ! ॐ ॐ ॐ ||

-श्री कृपा शंकर बावलिया मुद्गल

🚩सनातन संस्कृति संघ के सदस्य बनकर भारत व सनातन धर्म- संस्कृति की रक्षा व सम्वर्धन के अभियान में अपना सक्रीय योगदान दें।

सनातन संस्कृति संघ के सदस्य बनने के लिए अपना नाम, पता व संक्षिप्त परिचय हमें sanatansanskritisangh@gmail.com पर ई-मेल करें अथवा 08126396457 पर वाट्सएप्प करें।

जयतु भारतम्
जयतु संस्कृतम्

Wednesday 26 October 2016

केवल वे ही लोग आप्त कामना को उपलब्ध होते हैं जो आत्मा को उपलब्ध होते हैं।

एक सन्यासी एक घर के सामने से निकल रहा था। एक छोटा सा बच्चा घुटने टेक कर चलता था। सुबह थी और धूप निकली थी और उस बच्चे की छायाआगे पड़ रही थी।वह बच्चा छाया में अपने सिर को पकड़ने के लिए हाथ ले जाता है, लेकिन जब तक उसका हाथ पहुँचता है छाया आगे बढ़ जाती है। बच्चा थक गया और रोने लगा। उसकी माँ उसे समझाने लगी कि पागल यह छाया है, छाया पकड़ी नहीं जाती। लेकिन बच्चे कब समझ सकते हैं कि क्या छाया है और क्या सत्य है? जो समझ लेता है कि क्या छाया है और क्या सत्य,वह बच्चा नहीं रह जाता। वह प्रौढ़ होता है। बच्चे कभी नहीं समझते कि छाया क्या है, सपने क्या हैं झूठ क्या है।वह बच्चा रोने लगा।कहा कि मुझे तो पकड़ना है इस छाया को।वह सन्यासी भीख माँगनेआया था।उसने उसकी माँ को कहा,मैं पकड़ा देता हूँ। वह बच्चे के पास गया। उस रोते हुए बच्चे की आँखों में आँसू टपक रहे थे। सभी बच्चों की आँखों से आँसू टपकते हैंज़िन्दगी भर दौड़ते हैं और पकड़ नहीं पाते। पकड़ने की योजना ही झूठी है। बूढ़े भी रोते हैं और बच्चे भी रोते हैं। वह बच्चा भी रो रहा था तो कोई नासमझी तो नहीं कर रहा था। उस सन्यासी ने उसके पास जाकर कहा,बेटे रो मत।क्या करना है तुझे? छाया पकड़नी है न?उस सन्यासी ने कहा, जीवन भर भी कोशिश करके थक जायेगा, परेशान हो जायेगा। छाया को पकड़ने का यह रास्ता नहीं है। उस सन्यासी ने उस बच्चे का हाथ पकड़ा और उसके सिर पर हाथ रख दिया।इधर हाथ सिर पर गया, उधर छाया के ऊपर भी सिर पर हाथ गया। सन्यासी ने कहा,देख, पकड़ ली तूने छाया। छाया कोई सीधा पकड़ेगा तो नहीं पकड़ सकेगा। लेकिन अपने को पकड़ लेगा तो छाया पकड़ में आ जाती है।
     जो अहंकार को पकड़ने को लिए दौड़ता है वह अहंकार को कभी नहीं पकड़ पाता। अहंकार मात्र छाया है। लेकिन जो आत्मा को पकड़ लेता है, अहंकार उसकी पकड़ में आ जाता है।वह तो छाया है। उसका कोई मुल्य नहीं। केवल वे ही लोग तृप्ति को, केवल वे ही लोग आप्त कामना को उपलब्ध होते हैं जो आत्मा को उपलब्ध होते हैं।

विष्णु कौन हैं ?

इस चित्रण में विष्णु को एक इंसान के रूप बनाया गया था, या भारतीय प्राचीन ऋषियों द्वारा मानव जाति के लिए इस परम निरपेक्ष चेतना को समझने के लिए यह चित्र नियोजित किया गया था, । हम इस चित्रण के प्रत्येक पहलू का विश्लेषण करते हैं:

1. विष्णु लीलाधर हैं - सत् (विष्णु -परम निरपेक्ष चेतना) स्वयं को चित् (शिव - कूटस्थ चेतना ) और आनंद (ब्रम्हा - ब्रम्ह चेतना) में विभाजित करता है, अतः विष्णु और शिव दोनो ही पारब्रम्ह हैं, परन्तु अन्तर इतना ही है कि वह सत् जो ब्रम्ह (ॐ) में निहित होते हुए भी असलंग्न है कूटस्थ कहलाता है और जो ब्रम्ह की परिधि में नही है, परम कहलाता है। सच तो यह है कि सर्वस्व भेदरहित चैतन्य है। सत् ही लीला का जनक है इसलिए पुराणों में विष्णु को लीलाधर का नाम भी मिला है।
2. विष्णु के दो हाथ आगे एवं दो पीछे - अर्थात परम चेतना द्वारा सम्पन्न द्वंदरूपी कार्य (सृष्टि) प्राकट्य (सामने) और अप्राकट्य (पीछे) भी हैं। यानि अपरा एवं परा प्रकृति।
3.  विष्णु – अर्थात सर्वव्यापी।
4.विष्णु का नीला वर्ण - अर्थात ब्रम्ह तत्व को धारण करना। इसलिए सनातन धर्म में भगवान का वर्ण नीला या श्यामल दिखाते हैं। नीले, स्याही और बैंगनी रंग की आवृत्तियां इद्रंधनुष में सूक्ष्मतर होती हैं। अतः इनको देवत्व दर्शाने में प्रयोग करते हैं। जीव के भ्रूमध्य में जब नीली ज्योति का दर्शन होने लगता है तो वह सच्चिदानंद के द्वार पर पहुँच जाता है यानि आनंदमय स्वरूप को प्राप्त होता है।
5. विष्णु का हाथ के सहारे नेत्र मूंदे लेटना - अर्थात परमेश्वर की चेतना ही लीला रचती है। वह चेतना कभी सोती नही है अपितु सदैव जागरुक रहती है।. समस्त दृश्रयम् और अदृश्रयम्, परम निराकार चेतना की ही अभिव्यक्ति है, जो हर साकार रुपी सक्षम अणु में व्याप्त है।
6. विष्णु का अनन्त या शेषनाग की कुडंलिनी पर लेटना - अर्थात परमेश्वर की चेतना में निहित माया ही अनन्त लीला है एवं उसके ऊपर ही चेतना का वास है। उस परम निराकार चेतना की सृष्टिकल्प-अभिव्यक्ति के अंत में, शेष रहती है मात्र सुप्तावस्थित मायाशक्ति, जो भावी सृष्टिकल्प के प्रतिपादन हेतु, अभिन्न चेतनारूपी कुंडलित स्थितज शक्ति होती है।
7. शेषनाग का सहस्त्रमुखी फन विष्णु के ऊपर - सृष्टिकल्प के आरम्भ में सहस्त्रमुखी (अनंतरूपी) माया पुनः चैतन्यावस्था में आकर विष्णु का आवरण बन जाती है।
8. विष्णु का वाहन गरुड़ पक्षी - गरुड़ सर्पों (माया के अनन्तरूप) का विनाशक एवं पक्षीराज माना जाता है। परम निराकार चेतना गरुड़ पर विराजमान होती है, अर्थात जो व्यक्ति मायाजनित अज्ञान का नाश कर, उसके ऊपर ऊँची स्थायी उड़ान भरना सीख जाता है, परम चेतना उसपर सवार रहती है।
9. विष्णु अर्धनारीश्वर नही हैं - अर्थात परम निरपेक्ष चेतना का अविभाजित सत् एवं अव्यक्त मूर्तरूप।
10. विष्णु के अवतार होना - अर्थात परम निरपेक्ष और निराकार चेतना साकार रूप में  अवतरित होती है। वह परमेश्वर दोनों, निराकार और साकार है।
11. विष्णु की पत्नी लक्ष्मी - अर्थात चैतन्यता का “स्थिर भाव” जो सृष्टि का पालनकर्ता है और सृष्टि का यथोचित् “पालना” है।
12. विष्णु का क्षीरसागर के मध्य वैकुंठ में वास करना - परम चेतना से उद्भूत होती है माया और उससे उद्भूत होता है परम ज्योतिर्मय सागर या एैसा समझे कि ज्योतिर्मय सागर ही माया का मूलतः आधार है; प्रकाश ही हर पदार्थ का मूल है।, जिस पर माया प्रकट होती है; और परम एकल चेतना सबके मध्य में, यानि सबकी जनक है। वैकुंठ यानि मन, बुद्धि और अहम् के परे, अचिन्त्य “विषय-विकार रहित” अवस्था।
13. विष्णु के पीछे वाले हाथों में पंचजन्य शंख और सुदर्शन चक्र - अर्थात पंचप्राण,पंचतन्मंत्र  एवं पंचमहाभूत और सुदर्शन चक्र अर्थात सृष्टिचक्र का आनंद स्वरूप। विष्णु के आगे वाले हाथों में गदा और कमल - अर्थात शक्ति और नित्यशुद्ध-आत्मा।
14. विष्णु के दो कर्णफूल - द्वंद से ही चेतना की प्रकृति सुशोभित है।
15. विष्णु के गले में बनफूलों की माला और कौस्तुभ - प्रकृति ही चेतना को सुशोभित करती है एवं कौस्तुभ यानि हमारी हर शुद्ध इच्छा परम चेतना के हृदय में वास करती है और उसका पूर्ण होना सुनिश्चित है।
16. विष्णु के सतांन नही - अर्थात चित् और आनंद, सत् से उत्पन्न नही होते हैं, अपितु सत् के विभाज्य स्वरूप हैं।

ॐ जय जगदीश हरे

Friday 21 October 2016

चरित्र निर्माण अभियान

एक ५ वर्ष के !
मुस्लिम बच्चे को यह पता है, कि मस्जिद में जाकर क्या करना है !
वजू कैसे करना है !
नमाज कैसे पढी जाती है !
आदि .....
अब एक हिन्दू के १० वर्ष के बालक को देख लो !
८०℅ ऐसे मिल जायेंगे, जिन्हें यह नहीं पता कि गायत्री मंत्र क्या है।
सनातन धर्म क्या है ।
हमारा स्वाभिमान क्या है।
हम किन वीर पूर्वजों की संताने है ......।
....
क्यों ???????????????????
क्योंकि, हमने उनको उनके संस्कार नहीं बताये ......!
दोष उन बच्चों का नहीं हमारा है ......!
....
अगर हिन्दुत्व को बचाना है, तो चिल्लाने से हिन्दुत्व नहीं बचेगा ।
उसके लिए हमें अपने बच्चों में संस्कार बढाना होगा, उन्हें सिखाना होगा कि, हम कौन हैं, हमारी सभ्यता क्या थी, हमारे आदर्श कौन थे, आदि
.....
आओ हम मिलकर संकल्प लें कि !
हम अपने बच्चों को संस्कारवान बनायेंगे !
तभी हिन्दुत्व की रक्षा संभव है ।

🚩सनातन संस्कृति संघ द्वारा संचालित चरित्र निर्माण अभियान से जुड़े और संस्कार शाला चलाकर बच्चों को संस्कारित बनायें।

चरित्र निर्माण अभियान की मार्गदर्शिका पीडीएफ पुस्तक के रूप में मंगाने के लिए 08126396457 पर व्हाट्सएप्प करें।

Wednesday 19 October 2016

जब महात्मा बुद्ध को अपनी पत्नी के सामने निरुतर होना पड़ा

महात्मा बुद्ध अपनी पत्नी के सामने निरुतर हो गये थे वे १२ वर्ष बाद पत्नी को बोले भिक्षानदेही माई तब पत्नी ने तीन प्रशन किये ध्यान से सुनना नारायण !
१- आपने मुझमें व सीता में क्या फरक जाना कि राम वनवास के समय सीता को बताया व आप वनगमन में मुझें सोई को छोड़कर चले गये कैसे शंका करी की में आपको पवित्र कार्य के लिए रोकती नारायण !
उत्तर - निरुतर बुद्ध
२ - आपने एक पुत्र पैदा किया जैसे आप एक पेड़ लगावो व जल मत डालो तो क्या हाल होगा उस पेड़ का नारायण एवं क्षत्रियो में जीते जी बाप की जिम्मेदारी होती पुत्र पेड़रुपी पोधे के पालन पोषंण की अत: तुम जिन्दा थे बेटे को क्यो छोड़ा नारायण जवाब दो !
उत्तर - निरुत्तर महात्मा बुद्ध
३ - आपने जो ज्ञान जंगलो में भटक भटककर प्राप्त किया वो ज्ञान क्या इस घर में रहकर नही कर सकते थे क्या नारायण जवाब दो !
उत्तर - निरुत्तर महात्मा बुद्ध
नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण हरि ओ३म्

Wednesday 12 October 2016

बाल्मीकि रामायण में शम्बूक कथा की वास्तविकता ........

हर हर महादेव....मर्यादापुरुषोतम श्री रामचंद्र जी महाराज के जीवन को सदियों से आदर्श और पवित्र माना जाता हैं। कुछ विधर्मी और नास्तिकों द्वारा श्री रामचन्द्र जी महाराज पर शम्बूक नामक एक शुद्र का हत्यारा होने का आक्षेप लगाया जाता हैं। लेकिन सत्य वही हैं जो तर्क शास्त्र की कसौटी पर खरा उतरे। हम यहाँ तर्कों से शम्बूक वध की कथा की परीक्षा करके यह निर्धारित करेगे की सत्य क्या हैं।
.
सर्वप्रथम शम्बूक कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण में उत्तर कांड के 73-76 सर्ग में मिलता हैं। शम्बूक वध की प्रचलित कथा इस प्रकार हैं-
.
एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता बेटा मर गया। उस ब्राह्मण ने लड़के के शव को लाकर राजद्वार पर डाल दिया और विलाप करने लगा। उसका आरोप था की बालक की अकाल मृत्यु का कारण राज का कोई दुष्कृत्य हैं। ऋषि- मुनियों की परिषद् ने इस पर विचार करके निर्णय दिया की राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा हैं। रामचंद्र जी ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलाया। नारद जी ने उस सभा में कहा- राजन! द्वापर में भी शुद्र का तप में प्रवत होना महान अधर्म हैं (फिर त्रेता में तो उसके तप में प्रवत होने का प्रश्न ही नहीं उठता?)। निश्चय ही आपके राज्य की सीमा में कोई खोटी बुद्धिवाला शुद्र तपस्या कर रहा हैं। उसी के कारण बालक की मृत्यु हुई हैं। अत: आप अपने राज्य में खोज कीजिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे वहाँ उसे रोकने का यतन कीजिये। यह सुनते ही रामचन्द्र जी पुष्पक विमान पर सवार होकर शुम्बुक की खोज में निकल पड़े और दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया जो पेड़ से उल्टा लटक कर तपस्या कर रहा था।
.
उसे देखकर श्री रघुनाथ जी उग्र तप करते हुए उस तपस्वी के पास जाकर बोले- “उत्तम तप का पालन करते हए तापस! तुम धन्य हो। तपस्या में बड़े- चढ़े , सुदृढ़ पराक्रमी पुरुष! तुम किस जाति में उत्पन्न हुए हो? मैं दशरथ कुमार राम तुम्हारा परिचय जानने के लिए ये बातें पूछ रहा हूँ। तुम्हें किस वस्तु के पाने की इच्छा हैं? तपस्या द्वारा संतुष्ट हुए इष्टदेव से तुम कौन सा वर पाना चाहते हो- स्वर्ग या कोई दूसरी वस्तु? कौन सा ऐसा पदार्थ हैं जिसे पाने के लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हो जो दूसरों के लिए दुर्लभ हैं?
तापस! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। इसके सिवा यह भी बताओ की तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो?”
.
कलेश रहित कर्म करने वाले भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ वह तपस्वी बोला – हे श्री राम ! मैं झूठ नहीं बोलूँगा। देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ। मुझे शुद्र जानिए। मेरा नाम शम्बूक हैं।
.

वह इस प्रकार कह ही रहा था की रामचन्द्र जी ने म्यान से चमचमाती तलवार निकाली और उसका सर काटकर फेंक दिया|
.
इस कथा को पढ़कर मन में यह प्रश्न उठता हैं कि क्या किसी भी शुद्र के लिए तपस्या धर्म शास्त्रों में वर्जित हैं? क्या किसी शुद्र के तपस्या करने से किसी ब्राह्मण के बालक की मृत्यु हो सकती हैं? और, क्या श्री रामचन्द्र जी महाराज शूद्रों से भेदभाव करते थे?
.
इस प्रश्न का उत्तर वेद, रामायण ,महाभारत और उपनिषदों में अत्यंत प्रेरणा दायक रूप से दिया गया हैं।
.
वेदों में शूद्रों के विषय में कथन
1. तपसे शुद्रम- यजुर्वेद 30/5
अर्थात- बहुत परिश्रमी ,कठिन कार्य करने वाला ,साहसी और परम उद्योगों अर्थात तप को करने वाले आदि पुरुष का नाम शुद्र हैं।
2. नमो निशादेभ्य – यजुर्वेद 16/27
अर्थात- शिल्प-कारीगरी विद्या से युक्त जो परिश्रमी जन (शुद्र/निषाद) हैं उनको नमस्कार अर्थात उनका सत्कार करे।
3. वारिवस्कृतायौषधिनाम पतये नमो- यजुर्वेद 16/19
अर्थात- वारिवस्कृताय अर्थात सेवन करने हारे भृत्य का (नम) सत्कार करो।
4. रुचं शुद्रेषु- यजुर्वेद 18/48
अर्थात- जैसे ईश्वर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करता हैं वैसे ही विद्वान लोग भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करे।
5. पञ्च जना मम – ऋग्वेद
अर्थात पांचों के मनुष्य (ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र एवं अतिशूद्र निषाद) मेरे यज्ञ को प्रीतिपूर्वक सेवें। पृथ्वी पर जितने मनुष्य हैं वे सब ही यज्ञ करें।
इसी प्रकार के अनेक प्रमाण शुद्र के तप करने के, सत्कार करने के, यज्ञ करने के वेदों में मिलते हैं।
महर्षि वाल्मीकि जी कहते हैं की इस रामायण के पढ़ने से (स्वाध्याय से) ब्राह्मण बड़ा सुवक्ता ऋषि होगा, क्षत्रिय भूपति होगा, वैश्य अच्छा लाभ प्राप्त करेगा और शुद्र महान होगा। रामायण में चारों वर्णों के समान अधिकार देखते हैं देखते हैं। -सन्दर्भ- प्रथम अध्याय अंतिम श्लोक.
.
इसके अतिरिक्त अयोध्या कांड अध्याय 63 श्लोक 50-51 तथा अध्याय 64 श्लोक 32-33 में रामायण को श्रवण करने का वैश्यों और शूद्रों दोनों के समान अधिकार का वर्णन हैं।
.
महाभारत से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण
श्री कृष्ण जी कहते हैं -
हे पार्थ ! जो पापयोनि स्त्रिया , वैश्य और शुद्र हैं यह भी मेरी उपासना कर परमगति को प्राप्त होते हैं। गीता 9/32
.
उपनिषद् से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण
यह शुद्र वर्ण पूषण अर्थात पोषण करने वाला हैं और साक्षात् इस पृथ्वी के समान हैं क्यूंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण -पोषण करती हैं वैसे शुद्र भी सबका भरण-पोषण करता हैं। सन्दर्भ- बृहदारण्यक उपनिषद् 1/4/13
.
व्यक्ति गुणों से शुद्र अथवा ब्राह्मण होता हैं ना कि जन्म गृह से।
सत्यकाम जाबाल जब गौतम गोत्री हारिद्रुमत मुनि के पास शिक्षार्थी होकर पहुँचा तो मुनि ने उनका गोत्र पूछा। उन्होंने अपनी माता द्वारा बताया उत्तर दिया कि माता ने बताया था कि युवास्था में मैं अनेक व्यक्तियों की सेवा करती रही। उसी समय तेरा जन्म हुआ, इसलिए मैं नहीं जानती की तेरा गोत्र क्या हैं। मेरा नाम सत्यकाम हैं। इस पर मुनि ने कहा- जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी सत्य बात नहीं कर सकता। सन्दर्भ- छान्दोग्य उपनिषद् 3/4
.
महाभारत में यक्ष -युधिष्ठिर संवाद 313/108-109 में युधिष्ठिर के अनुसार व्यक्ति कुल, स्वाध्याय व ज्ञान से द्विज नहीं बनता अपितु केवल आचरण से बनता हैं।
.
कर्ण ने सूत पुत्र होने के कारण स्वयंवर में अयोग्य ठहराये जाने पर कहा था--- जन्म देना तो ईश्वर अधीन हैं, परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा कुछ का कुछ बन जाना मनुष्य के वश में हैं। .
.
आपस्तम्ब धर्म सूत्र 2/5/11/10-11 – जिस प्रकार धर्म आचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता हैं जिसके वह योग्य हो। इसी प्रकार अधर्म आचरण से उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे वर्ण को प्राप्त होता हैं।
.
जो शुद्र कूल में उत्पन्न होके ब्राह्मण के गुण -कर्म- स्वभाव वाला हो वह ब्राह्मण बन जाता हैं उसी प्रकार ब्राह्मण कूल में उत्पन्न होकर भी जिसके गुण-कर्म-स्वाभाव शुद्र के सदृश हों वह शुद्र हो जाता हैं- मनु 10/65
.
चारों वेदों का विद्वान , किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से निकृष्ट होता हैं, अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता हैं- महाभारत वन पर्व 313/111
.
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं।महाभारत अनुगीता पर्व 91/37
.
सत्य,दान, क्षमा, शील अनृशंसता, तप और दया जिसमें हो वह ब्राह्मण हैं और जिसमें यह न हों वह शुद्र होता हैं। वन पर्व 180/21-26
.
श्री रामचन्द्र जी महाराज का चरित्र
वाल्मीकि रामायण में श्री राम चन्द्र जी महाराज द्वारा वनवास काल में निषाद राज द्वारा लाये गए भोजन को ग्रहण करना (बाल कांड 1/37-40) एवं शबर (कोल/भील) जाति की शबरी से बेर खाना (अरण्यक कांड 74/7) यह सिद्ध करता हैं की शुद्र वर्ण से उस काल में कोई भेद भाव नहीं करता था।
श्री रामचंद्र जी महाराज वन में शबरी से मिलने गए। शबरी के विषय में वाल्मीकि मुनि लिखते हैं की वह शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्वनी थी। अरण्यक 74/10
इससे यह सिद्ध होता हैं की शुद्र को रामायण काल में तपस्या करने पर किसी भी प्रकार की कोई रोक नहीं थी।
नारद मुनि वाल्मीकि रामायण (बाल कांड 1/16) में लिखते हैं राम श्रेष्ठ, सबके साथ समान व्यवहार करने वाले और सदा प्रिय दृष्टी वाले हैं।
.

अब पाठक गण स्वयं विचार करे की श्री राम जी कैसे तपस्या में लीन किसी शुद्र कूल में उत्पन्न हुए शम्बूक की हत्या कैसे कर सकते हैं?
.
जब वेद , रामायण, महाभारत, उपनिषद्, गीता आदि सभी धर्म शास्त्र शुद्र को तपस्या करने, विद्या ग्रहण से एवं आचरण से ब्राह्मण बनने, समान व्यवहार करने का सन्देश देते हैं तो यह वेद विरोधी कथन तर्क शास्त्र की कसौटी पर असत्य सिद्ध होता हैं।
नारद मुनि का कथन के द्वापर युग में शुद्र का तप करना वर्जित हैं असत्य कथन मात्र हैं।
श्री राम का पुष्पक विमान लेकर शम्बूक को खोजना एक और असत्य कथन हैं क्यूंकि पुष्पक विमान तो श्री राम जी ने अयोध्या वापिस आते ही उसके असली स्वामी कुबेर को लौटा दिया था-सन्दर्भ- युद्ध कांड 127/62
.
जिस प्रकार किसी भी कर्म को करने से कर्म करने वाले व्यक्ति को ही उसका फल मिलता हैं उसी किसी भी व्यक्ति के तप करने से उस तप का फल उस तप कप करने वाले dव्यक्ति मात्र को मिलेगा इसलिए यह कथन की शम्बूक के तप से ब्राह्मण पुत्र का देहांत हो गया असत्य कथन मात्र हैं।
.
सत्य यह हैं की मध्य काल में जब वेद विद्या का लोप होने लगा था, उस काल में ब्राह्मण व्यक्ति अपने गुणों से नहीं अपितु अपने जन्म से समझा जाने लगा था, उस काल में जब शुद्र को नीचा समझा जाने लगा था, उस काल में जब नारी को नरक का द्वार समझा जाने लगा था, उस काल में मनु स्मृति में भी वेद विरोधी और जातिवाद का पोषण करने वाले श्लोकों को मिला दिया गया था,उस काल में वाल्मीकि रामायण में भी अशुद्ध पाठ को मिला दिया गया था जिसका नाम उत्तर कांड हैं।
.
इस प्रकार के असत्य के प्रचार से न केवल अवैदिक विचाधारा को बढावा मिला अपितु श्री राम को जाति विरोधी कहकर कुछ अज्ञानी लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए हिन्दू जाति की बड़ी संख्या को विधर्मी अथवा नास्तिक बनाने में सफल हुए हैं।
.
पूरा उत्तरकाण्ड ही मिलावट की देन है तो केवल शम्बूक वध पर सफाई देने का कोई औचित्य नहीं बनता सपष्ट सी बात है की जो राम शुद्र शबरी के झूठे बेर खा सकते हैं तो किसी तपस्वी को उसके शूद्र् होने के कारन क्यों मारेंगे?
जय जय श्रीराम !
साभार: श्री मिथिलेश द्विवेदी जी