Thursday 22 May 2014

चंद्रगुप्त और चाणक्य को वृद्धा की सीख

सम्राट चंद्रगुप्त एवं चाणक्य की वीरता एवं बुद्धिमता का लोहा सभी मानते है , चाणक्य की कुटनीति विश्व की सर्वश्रेष्ठ कुटनीति मानी जाती है , फिर भी एक बार उनसे गलती हो गई थी और जिसके फलस्वरूप उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था । दरअसल नन्द राज्य को जीतने के लिये उन लोगों ने सीधा पाटलीपुत्र पर ही हमला कर दिया था और इस कारण उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा और मारे - मारे जंगलों में भी भटकना पड़ा था । 
इसी प्रकार जब वो भूखे - प्यासे एक दिन जंगल में भटक रहे थे तो उन्हें एक झोपड़ी दिखी । झोपड़ी के पास पहुँच कर जब उन्होंने आवाज दी तो अंदर से एक वृद्धा निकली । वह अत्यंत ही गरीब थी परन्तु उसका हृदय अत्यंत विशाल एवं प्रेम से परिपूर्ण था । 
जब उस वृद्धा ने अपने द्वार पर दो - दो अतिथितियों को देखा , तो वह खुशी से जैसे पागल हो गई । उसे यह नहीं पता था कि उसकी कुटिया में सम्राट चंद्रगुप्त एवं उनके बुद्धिमान मंत्री चाणक्य आये है । वह वृद्धा उन्हें केवल अतिथि मान कर उनकी आवाभगत करने लगी । उन्हें बड़े सम्मान से टूटी खाट पर बिठाया और ठंडा पानी पिलाया । 
कुछ देर बाद वृद्धा ने देखा कि अतिथि तो वहीं पर बैठे है और कुछ परेशान से लग रहे है । तो उसने अपने अतिथियों से कहा - ' तुम लोग थके परेशान से लग रहे हो । यही बैठकर आराम करो , तब तक मैं कुछ खाना बनाती हूँ । ' 
शाम होने को थी । वृद्धा ने अपनी कुटिया के एक कोने में बने चूल्हे को जलाया और उस पर खिचड़ी बनाने को रख दी । थोड़ी ही देर बाद वृद्धा का लड़का खेत से लौटा और अपनी माँ से बोला - ' मुझे कुछ खाने को दो , बहुत जोर से भूख लगी है । ' खिचड़ी बनकर तैयार हो चुकी थी । वृद्धा ने अपने पुत्र के सामने खिचड़ी भरी थाली परोस दी । पुत्र बहुत भूखा था । उसने शीघ्रता पूर्वक अपना हाथ खिचड़ी में डाल दिया और जोर से चीख पड़ा । वृद्धा अपने पुत्र की चीख सुनकर घबराते हुये उसके पास पहुँची और पूछा - ' क्या हुआ , तुम चीखे क्यों थे ? ' , ' कुछ नहीं माँ , खिचड़ी बहुत गर्म थी । मेरा हाथ जल गया । ' लड़के ने उत्तर दिया । पुत्र की व्याकुलता की भर्त्सना करते हुए वृद्धा बोली - ' अरे अभागे ! क्या तू भी चंद्रगुप्त और चाणक्य जैसा ही बेवकूफ है । ' 
वृद्धा की जुबान पर अपना नाम सुनते ही चन्द्रगुप्त और चाणक्य के कान खड़े हो गये । उन्होंने वृद्धा से पूछा - ' अम्मा , चंद्रगुप्त एवं चाणक्य आखिर मूर्ख कैसे है , उन्होंने क्या मूर्खता की है ? और फिर आपने अपने पुत्र को उनका उद्दाहरण क्यों दिया ? ' 
वृद्धा हास्यपूर्ण मुद्रा में बोली - ' देखों बेटा , राजा चंद्रगुप्त और चाणक्य ने गलती की थी , तभी तो मैं उनका उदाहरण अपने पुत्र को दे रही थी । चंद्रगुप्त एक शक्तिशाली राजा है और चाणक्य उनका बुद्धिमान मंत्री है । वो लोग नन्द वंश का नाश करना चाहते थे पर उनमें इतनी भी बुद्धि नहीं थी कि पहले आसपास के छोटे - मोटे राजाओं को जीतते , तब राजधानी पर आक्रमण करते । इससे जीते हुये राजाओं का भी उन्हें सहयोग प्राप्त हो जाता । परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया । उन मूर्खो ने सीधे ही बीच में जाकर राजधानी पाटलीपुत्र पर चढ़ाई कर दी और किसी की सहायता न मिलने के कारण वो हार गये । 
ठीक इसी प्रकार मेरे पुत्र ने भी आचरण किया । उसने भी गर्म खिचड़ी में ही सीधे हाथ डाल दिया । उसे चाहिये था कि पहले आस पास यानि की थाली के किनारों की खिचड़ी लेकर ठंडा करता और फिर उसे खाता । ' 
वृद्धा की बात सुनकर चंद्रगुप्त और चाणक्य की आखें खुल गई । उन्होंने उसकी बात को सीख मानकर और अपनी बुद्धि का उपयोग करके , अंत में नन्द पर विजय प्राप्त कर नन्दवंश का नाश कर दिया । 


राष्ट्र सेवा के संकल्पी मित्रों यदि हमें सच में माँ भारती और इसकी संस्कृति की रक्षा करनी है , तो वेकिटन या अरबपंथीयों पर विजय करने से पूर्व हमें अपने देश के छद्म सेक्यूलर दरिंदों पर विजय प्राप्त करनी होगी । हमें असली खतरा इन्ही गद्दारों से है , यदि ये गद्दार न होते तो भारत कदापि बाहर से आई कुछ मुठ्ठीभर साम्राज्यवादी साम्प्रदायिक ताकतों का गुलाम न बना होता । 
वन्दे मातरम् 
जय जय माँ भारती । 
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

नव वर्ष में नवीनता क्या ?

इस समय पूरे देश में2014 आने के उत्सव मनाये जा रहे हैं और इन उत्सवों का स्वरूप भी 'विशुद्ध आधुनिक' है दूसरी तरफ इन्टरनेट पर हिन्दुत्ववादी और राष्ट्रवादी लोग इन उत्सवों की प्रासंगिकता पर चर्चाएँ कर रहे हैं | उत्सवों का रंग बड़े नगरों में कुछ ज्यादा ही चटख है और विरोधी स्वर्रों में जोर इस बात पर है की इस नववर्ष का मूल विदेश में है  या ये किसी दुसरे धर्म के प्रवर्तक के जन्म के  आधार पर है | सभी के पास अपने तर्क हैं और मेरे पास भी हैं |

मुझे इस बात से कोई समस्या नहीं है की इस नववर्ष का मूल भारत भूमि से दूर एशिया और यूरोप की सीमा पर स्थित बेथेहलम में है | हम अभी भी उन वेद ऋचाओ के अनुसार चलते हैं जिनका कहना है की "यज्ञ अर्थात अच्छे विचार समस्त दिशाओं से हमारे पास आयें " या "ज्ञान यदि शत्रु से भी मिले तो उसे ले लेना चाहिए" परन्तु हम यह अवश्य देखना चाहेंगे की जो हमें मिल रहा है ये ज्ञान है या अज्ञान है ; और यदि ज्ञान है भी तो मंगलकारी है या नहीं लोकहितकारी है या नहीं है |

सबसे पहले बात करते है ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा के जन्म दिन की ; अगर ईसा का जन्म 25 दिसंबर को हुआ था तो नववर्ष 1 जनवरी को क्यूँ ? इसके अतिरिक्त ईसा का जन्म बेथेहलम में हुआ था और उनके जन्म के समय एक गुफा में भेड़ों और गडारियों की भी कथा है | परन्तु बेथेहलमने जनवरी के इस ठन्डे मौसम में गडरिये अपनी भेड़ों को लेकर बाहर नहीं निकलते हैं , इस संबंधमे मार्च या अप्रैल वाली परंपरा अधिक उचित प्रतीत होती है | जिस प्रकार "ईसा इश्वर का पुत्र है " ये बात का 'निर्णय' ईसा की मृत्यु  के 300 वर्षों बाद पादरियों की सभा में लिया गया था उसी प्रकार इस बात का भी निर्णय लिया गया हो की ईसा का जन्म नववर्ष के अवसर पर हुआ था | एक दूसरी संभावना ये दिखती है की ईसा का जन्म हिन्दू नववर्ष के दिन हुआ हो (जो की तार्किक रूप से भी सही लगता है ) और ये बात उस समय के उस स्थान के जनमानस में बैठ गयी हो परन्तु काल-गणना सही न होने के कारन वो लोग उसे संभल न पाए हो और बाद में किसी पादरी के कुछ निर्णय कर दिए हों |

अब बात ग्रेगेरियन कैलेंडर की करी जाय | कुछ लोग कह सकते हैं की भले ही इस नववर्ष का ईसा से कोई सम्बन्ध न हो पर एक वर्ष पूर्ण होने पर उत्सव किया जाता है | परन्तु अभी तक इस "वर्ष" की सही और उचित परिभाषा भी निर्धारित नहीं की जा सकी है | यदि पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने को एक वर्ष माना जाय तो ग्रेगेरियन वर्ष इससे छोटा होता है और अगर 4 वर्षों में किये जाने वाले संशोधन को ध्यान में रखा जाय तो यह एक वर्ष से बड़ा हो जाता है | इसमें बहुत अधिक विसंगतियां हैं और इसकी सर्वमान्यता भी छद्म है |इसी लिए तो अक्तूबर क्रांति की वर्षगांठ नवम्बर में होती है और लन्दन में एक बार दंगे हो चुके थे क्यूँकी 3 मार्च के बाद वाले दिन को 18 मार्च घोषित कर दिया गया था |

अब परंपरा की बात कर लेते हैं ; हिन्दू नववर्ष की परंपरा कम से कम ५००० वर्ष पुरानी तो है ही इसका हमारे पास साक्ष्य है और इस नववर्ष की तो तिथि का ही निर्धारण ही उचित तरीके से नहीं हुआ है | अगर भारतीय परंपरा को छोड़ दिया जाय और यूरोप की ही बात कर ली जाय तो मार्च में नववर्ष मानाने की परंपरा कहीं अधिक पुरानी और समृद्ध है | अब बात करते हैं आधुनिकता के ध्वजवाहकों की जिनका मानना है की "ज़माने के साथ चलो" या "पुरानी बातें छोडो और नए तरीकों को अपनाओ " तो क्या किसी चीज को इस लिए ही अपनाया जा सकता है की वो नयी  है ?? एक प्रसिद्द वाक्य है की "बाजार में तकनीकी या नवीनता नहीं अपितु उपयोगिता बिकती है "  जब बाजार में "केवल नवीनता" नहीं बिक सकती है तो इस "मुर्खतापूर्ण नवीनता " को हमारे जीवन में इतना अधिक महत्वपूर्ण स्थान क्यूँ मिलाना चाहिए ??

अब इसके बाद हम बात करते हैं उन लोगों की जो कहते हैं की "अगर 1 जनवरी को 'थोड़ी सी मस्ती ' कर भी लो तो क्या फर्क पड गया ??"  या क्या हमारी सस्कृति इतनी कमजोर है की कुछ 'New Year Parties ' से ख़तम हो जायेगी ?" या सबसे 'धमाकेदार' "क्या पुरी दुनिया पागल है ?" | तो सबसे पहले तो यह की जिस प्रकार Cristianity का Crist से कोई सम्बन्ध नहीं है और "वेलेंटाइन डे के उत्सवों के स्वरुप " का संत वेलेंटाइन से कोई सम्बन्ध नहीं है उसी प्रकार इस नववर्ष में कुछ भी नवीन नहीं है |इसकी लोकप्रियता का कारन केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों की वह रणनीति है जिसके अनुसार "खर्च करना "ही एक मात्र जीवन शैली है और यही एक मात्र उत्सवपूर्ण जीवन शैली है , खर्च करना ही आप की महानता  की निशानी है और खर्च करना ही और की उदारता का प्रतीक है |उत्सव अर्थात खर्च करना | इन उत्सवों के स्वरूप के देखिये पूरा का पूरा ध्यान खर्च करने पर रहता है और पुरी तरह से मुर्खतापूर्ण खर्चे करने पर जो की केवल बड़ी कम्पनियों को ही लाभ पहुचती हैं | ये "केवल खर्च करना"  बड़ी कंपनियां हमारी जीवन शैली बना देना चाहती हैं जो की हमें स्वीकार है है क्यूँ की ये अमंगलकारी है | इस "थोड़ी सी मस्ती " से फर्क ये पड़ता है की आप मानसिक दासता को स्वीकार कर लेते हैं औ आप को पता भी नहीं चलता है की आप बहुराष्टीय कंपनियों प्रबंधकों के मानसिक चक्रव्यूह में फँस चुके हैं | हमारी भारतीय संस्कृति खतरे में नहीं पड सकती है क्यूँकी यह तो सत्य  पर आधारित होती है और सत्य तो "देश काल की सीमाएँ से परे" होता है परन्तु हमारी यह सत्य सनातन संस्कृति ही हमें यह कर्तव्य बोध देती है  की हम भटके हुए लोगों को सन्मार्ग दिखाएँ | हमारी संस्कृति हमें यह सिखाती है की अगर कुछ लोग मुर्ख हैं तो यह उनकी गलती नहीं है अपितु उस समाज के ज्ञानियों की गलती है की उन्होंने उन मुर्कोह को ज्ञान क्यूँ नहीं दिया |

अंत में कुछ शब्द उन ज्ञानियों से जो की हमारे इस लेख से सहमत हैं और पूरी शक्ति से उन लोगों को कोसने में लगे हुए हैं जो इस "नववर्ष  उत्सव" को मानते हैं |ये हालत एक दिन में नहीं बिगड़े हैं तो एक दिन में सुधरेंगे भी नहीं | हमारे बुजुर्गों ने विकास के लोभ में जो पथ चुना था वो यहीं पर आता है | जिसे आधुनिकता का पर्याय माना गया था उसकी यही परिणिति थी | आज हम जो काट रहे है ये कम से कम 20 वर्ष पहले या शायद 60 वर्ष पहले बोया गया था | आज की फसल को कोसने या गली देने के बजे आर हम कल के लिए फसल बोयेंगे तो तो ज्यादा अच्छा रहेगा ऐसा मेरा निजी रूप से मानना है और हम इसी का प्रयास भी कर रहे हैं |

ज्ञान , धन और समाज के लिए ज्ञान का महत्त्व

ज्ञान के लिए धन की आवश्यकता के दुष्प्रभाव

अगर कोई मुझसे पूछेगा की COPYRIGHT की हिंदी क्या होती है तो मेरा सीधा उत्तर होगा कीCOPYRIGHT की कोई हिन्दी नहीं होती है क्यूँकी हमारी संस्कृति में copyright नहीं होता हैहमारी संस्कृति में ज्ञान का प्रवाह मुक्त होता हैऔर यह केवल एक ही क्षेत्र नहीं है जहाँ पर ज्ञान का मुक्त प्रवाह होता है | हमारे मनीषियों ने ज्ञान के महत्त्व को भी समझा था और उसकी शक्ती को भी और इसलिए उनको पता था की ज्ञान पर धन का नियंत्रण नहीं होना चाहिए अपितु नैतिकता का और प्राणीमात्र के कल्याण की भावना का नियंत्रण होना चाहिए |

परन्तु आज की स्थिति यह है की शिक्षा की प्राप्ति के लिए पहली आवश्यकता धन हो गयी हैधन के बिना शिक्षा प्राप्त करना संभव ही नहीं रह गया है और इसके परिणाम भी भयंकर हुए हैं | जब शिक्षा धन की सहायता से ही मिलाती है (और एक सीमा तक केवल धन की सहायता से) तो शिक्षा का उद्देश्य भी धनोपार्जन ही रह जाता है | हमने अपने विद्यालयों में वाक्य लिखे देखे थे "शिक्षार्थ आइये सेवार्थ जाइए " परन्तु आज की वास्तविकता है की "धन की सहायता से आइये और धनोपार्जन के लिए जाइए " और
यह समाज के लिए त्रासदी कारक क्योंकी पूरे शिक्षा काल में शिक्षक और विद्यार्थी दोनों का ध्यान पुरी तरह से इस बात पर लगा रहता है की किस तरह से अधिक विद्यार्थी अधिक से अधिक धनोपार्जन के योग्य बन सकता है ज्ञान तो कहीं पीछे छूत जाता है |

यह सब भी उतना विडम्बनापूर्ण नहीं होता अगर यह स्थिति केवल व्यक्तिगत स्तर पर होती , परतु यह सब संस्थाओं के स्तर पर भी हो रहा है , वो संस्थान श्रेष्ठ माने जाते हैं जहाँ के छात्र अधिक धनोपार्जन कर सकते हैं और इसका परिणाम यह होता है हमारे सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों की नीतियों को भी बड़े उद्योगपति नियंत्रित करने लगते हैं | अब जब धन का ज्ञान पर इस स्तर से नियंत्रण होगा तो उसका उपयोग भी कुछ लोगों के व्यक्तिगत हितों के लिए होगा और ऐसा हो भी रहा है | हम अप को इसके कुछ उदहारण बताते हैं |

हमारे कुछ अतिप्रतिष्ठित तकनीकी शिक्षा संस्थान हैं जिनको अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सम्मान मिलाता है और इन संस्थानों में कई महत्वपूर्ण आविष्कार भी हुए हैं परन्तु वो सारे आविष्कार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़े उद्योगों या उद्योगपतियों को लाभ पहुँचाने वाले हैं |भारतीय प्रद्योगिकी संस्थान दिल्ली में मेकेनिकल अभियांत्रकी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष के अबुसार पिछले ३० वर्षों में किसी भी भारतीय प्रद्योगिकी संस्थान में "वैकल्पिक उर्जा "पर कोई सार्थक कार्य नहीं हुआ है | एक निकाय है "गैसीफायर" अगर यह पूरी तरह से विकसित हो जाय तो शहरी क्षेत्रों में भी बहुत ही काम लकड़ी से शहरी क्षेत्रों में भी खाना बनाया जा सकता हैं परन्तु इस प्रकार के उपकरण का अभी तक विकास हुआ ही नहीं है क्योंकी इनके विकास मी किसी भी बड़े उद्योग के हित निहीत नहीं थे और शायद किसी सीमा तक अहित भी हो सकता था |इस सब के स्थान पर पर्यावरण की रक्षा के नाम पर विकसित हुए हैं वो उपकरण जो बिजली से चलते हैं परन्तु ये बात छिपाई जाती है की विद्दुत के उत्पादन में भी प्रदूषण उत्पन्न होता है या विकसित होते हैं वो सौर्य उर्जा उपकरण जो अपने पुरे जीवन काल में भी उतनी उर्या का उत्पादन नहीं कर पाते हैं जितनी उर्जा उन उपकरणों के उत्पादन में व्यय हुईथी |

शिक्षा के लिए धन की आवश्यकता की हानियाँ केवल इतनी ही नहीं हैं | यदि ज्ञान धन की सहायता से प्राप्त किया गया है तो उसे निःशुल्क सेवा में नहीं लगाया जा सकता है और इस कारण से जो निर्धन हैं वो ज्ञान की सेवाओं से वंचित रह जाते हैं | हमारे ग्रंथों में ज्ञान जीवियों को ब्राहमण कहा गया है और स्पष्ट आदेश दिया गया है की "अपनी सेवाओं का मूल्य लेना कुत्ते की वृत्ति है जो की ब्राहमणों के लिए आपत्ति काल में भी वर्जित है |" परन्तु यदि कोई व्यक्ति अपने परिवार की पूरी संचित संपत्ति लगाकर या ऋण लेकर शिक्षा और योग्यता प्राप्त करता है तो हम उससे यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं की वो इस ज्ञान को निःस्वार्थ और निःशुल्क सेवा में लगाएगा ??? और ज्ञान को बेचे जाने के परिणाम भयावह होते हैं यह सब हम आज के इस तथाकथित विकास चक्र को देख कर समझ सकते हैं |

तो क्या हमें एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है जिसमे की ज्ञान का प्रवाह मुक्त हो , क्या हमें एक ऐसी व्यवस्था नहीं बनानी चाहिए जहाँ किसी भी स्तर पर ज्ञान या ज्ञान आधारित सेवाओं के लिए किसी भी स्तर पर धन ना देना पड़े ? जिस व्यवस्था में ज्ञान का उद्देश्य धनोपार्जन नहीं अपीति सर्वे भवन्तु सुखिनः हो ?? अगर हम ऐसी व्यवस्था का निर्माण कर सकें तो शायद हम एक ऐसे समाज का भी निर्माण कर पाएंगे जहाँ पर मनुष्य के जीवन का लक्ष्य धन तथा भौतिक संसाधनों का उपार्जन ना होकर उससे कुछ अधिक होगा औ ज्ञान का उद्देश्य धन नहीं अपितु प्राणिमात्र के कल्याण की भावना होगी |

बन्दा बहादुर सिहं

प्रारम्भिक जीवन – लच्छमन दास का जन्म
1670 ईस्वी में ऐक राजपूत परिवार में
हुा था। उसे शिकार का बहुत शौक था। ऐक दिन
उस ने ऐक हिरणी का शिकार किया । मरने से
पहले लच्छमन दास के सामने ही हिरणी ने
दो शावकों को जन्म दे दिया। इस घटना से वह
स्तब्द्ध रह गया और उस के मन में वैराग्य जाग
उठा। संसार को त्याग कर वह बैरागी साधू
‘माधवदास’ बन गया तथा नान्देड़
(महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट पर
कुटिया बना कर रहने लगा।
पलायनवाद से कर्म योग – आनन्दपुर
साहिब में खालसा पंथ की स्थापना कर के गुरु
गोबिन्दसिहँ दक्षिण चले गये थे। संयोगवश उन
की मुलाकात बैरागी माधवदास से हो गयी।
गुरु जी ने उसे उत्तरी भारत में हिन्दूओं
की दुर्दशा के बारे में बताया तथा पलायनवाद
का मार्ग छोड कर धर्म रक्षा के लिये हथियार
उठाने के कर्मयोग की प्रेरणा दी, और उस
का हृदय परिवर्तन कर दिया। गुरूजी ने उसे
नयी पहचान ‘बन्दा बैरागी बहादुर सिंह’
की दी। प्रतीक स्वरुप उसे अपने तरकश से ऐक
तीर, ऐक नगाडा तथा पंजाब में अपने शिष्यों के
नाम ऐक आदेश पत्र (हुक्मनामा) भी लिख कर
दिया कि वह मुगलों के जुल्म के विरुद्ध
बन्दा बहादुर को पूर्ण सहयेग दें। इस के पश्चात
तीन सौ घुडसवारों की सैनिक टुकडी ने आठ कोस
बन्दा बहादुर के पीछे चल कर उसे
भावभीनी विदाई दी। बन्दा बहादुर पँजाब आ
गये।
प्रतिशोध - पँजाब में हिन्दूओं तथा सिखों ने
बन्दा बहादुर सिहँ का अपने सिपहसालार
तथा गुरु गोबिन्द सिहं के प्रतिनिधि के तौर
पर स्वागत किया। ऐक के बाद ऐक,
बन्दा बहादुर ने मुगल प्रशासकों को उन के
अत्याचारों और नृशंस्ता के लिये सज़ा दी।
शिवालिक घाटी में स्थित मुखलिसपुर
को उन्हों ने अपना मुख्य स्थान बनाया। अब
बन्दा बहादुर और उन के दल के चर्चे स्थानीय
मुगल शासकों और सैनिकों के दिल में सिहरन
पैदा करने लगे थे। उन्हों ने गुरु गोबिन्द सिहँ के
पुत्रों की शहादत के जिम्मेदार मुगल सूबेदार
वज़ीर खान को सरहन्द के युद्ध में मार
गिराया। इस के अतिरिक्त गुरु गोबिन्द सिहँ
के परिवार के प्रति विशवासघात कर के उसे
वजीर खान को सौंपने वाले
ब्राह्मणों तथा रँघरों को भी सजा दी।
अपनों की ग़द्दारी – अन्ततः दिल्ली से
मुगल बादशाह ने बन्दा बहादुर के विरुध
अभियान के लिये अतिरिक्त सैनिक भेजे।
बन्दा बहादुर को साथियों समेत मुगल सैना ने
आठ मास तक अपने घेराव में रखा।
साधनों की कमी के कारण उन का जीना दूभर
हो गया था और केवल उबले हुये पत्ते,
पेडों की छाल खा कर भूख मिटाने की नौबत आ
गयी थी। सैनिकों के शरीर अस्थि-पिंजर बनने
लगे थे। फिर भी बन्दा बहादुर और उन के
सैनिकों ने हार नहीं मानी। आखिरकार कुछ
गद्दारों की सहायता और छल कपट से मुगलों ने
बन्दा बहादुर को 740 वीरों समेत
बन्दी बना लिया।
अमानवीय अत्याचार – 26
फरवरी 1716 को पिंजरों में बन्द कर के
सभी युद्ध
बन्दियों को दिल्ली लाया गया था। लोहे
की ज़ंजीरों से बन्धे 740 कैदियों के अतिरिक्त
700 बैल
गाडियाँ भी दिल्ली लायी गयीं जिन पर
हिन्दू सिखों के कटे हुये सिर लादे गये थे और
200 कटे हुये सिर भालों की नोक पर टाँगे गये
थे। तत्कालिक मुगल बादशाह फरुखसैय्यर के
आदेशानुसार दिल्ली के निवासियों नें 29
फरवरी 1716 के मनहूस दिन वह
खूनी विभित्स प्रदर्शनी जलूस अपनी आँखों से
देख कर उन वीर बन्दियों का उपहास
किया था।
अपमानित करने के लिये बन्दा बहादुर सिहँ
को लाल रंग की सुनहरी पगडी पहनाई
गयी थी तथा सुनहरी रेशमी राजसी वस्त्र
भी पहनाये गये थे। उसे पिंजरे में बन्द कर के,
पिंजरा ऐक हाथी पर रखा गया था। उस के
पीछे हाथ में नंगी तलवार ले कर ऐक जल्लाद
को भी बैठाया गया था। बन्दा बहादुर के
हाथी के पीछे उस के 740 बन्दी साथी थे जिन
के सिर पर भेड की खाल से
बनी लम्बी टोपियाँ थीं। उन के ऐक हाथ
को गर्दन के साथ बाँधे गये
दो भारी लकडी की बल्लियों के बीच में
बाँधा गया था।
प्रदर्शन के पश्चात उन सभी वीरों को मौत के
घाट उतारा गया। उन के कटे शरीरों को फिर
से बैल गाडियों में लाद कर नगर में
घुमाया गया और फिर गिद्धों के लिये खुले में फैंक
दिया गया था। उन के कटे हुये सिरों को पेडों से
लटकाया गया। उल्लेखनीय है कि उन में से
किसी भी वीर ने क्षमा-याचना नहीं करी थी।
बन्दा बहादुर को अभी और यतनाओं के लिये
जीवित रखा हुआ था।
विभीत्समय अन्त – 9 जून 1716
को बन्दा बहादुर के चार वर्षीय पुत्र अजय
सिहँ को उस की गोद में बैठा कर, पिता पुत्र
को अपमान जनक जलूस की शक्ल में कुतब मीनार
के पास ले जाया गया। बन्दा बहादुर को अपने
पुत्र को कत्ल करने का आदेश दिया गया जो उस
ने मानने से इनकार कर दिया। तब जल्लाद ने
बन्दा बहादुर के सामने उन के पुत्र के टुकडे टुकडे
कर डाले और उन रक्त से भीगे
टुकडों को बन्दा बहादुर के मुहँ पर फैंका गया।
उस का कलेजा निकाल कर उस के मूहँ में
ठोंसा गया। वह बहादुर सभी कुछ स्तब्द्ध
हो कर घटित होता सहता रहा। अंत में जल्लाद
ने खंजर की नोक से बन्दा बहादुर की दोनों आँखें
ऐक ऐक कर के निकालीं, ऐक ऐक कर के पैर
तथा भुजायें काटी और अन्त में लोहे की गर्म
सलाखों से उस के जिस्म का माँस नोच दिया।
उस के शरीर के सौ टुकडे कर दिये गये।
शर्मनाक उपेक्षा – आदि काल से ले कर आज
तक हिन्दू विजेताओं ने कभी इस प्रकार
की क्रूरता नहीं की थी। आज भारत में औरंगजेब
के नाम पर औरंगाबाद और फरुखसैय्यर के नाम पर
फरुखाबाद तो हैं किन्तु बन्दा बहादुरसिंह
का कोई स्मारक नहीं है।

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत। पुर्जा-पुर्जा कर मरे, कबहू ना छोड़े खेत।।

* साहिबजादे बाबा फतेह सिंह व जोरावर सिंह बने मिसाल

* गुरु गोबिंद सिंह जी के साहिबजादों की शहादत पर विशेष

 भारत वर्ष पर पठानों व मुगलों ने कई सौ साल तक राज किया। उन्होंने अपने राज की मजबूती व इस्लाम धर्म को भारत के कोने-कोने तक फैलाने के लिए हिंदुओं पर जुल्म करने शुरू कर दिए। औरंगजेब ने तो जुल्म करने की सभी हदें पार कर दी। हजारों मंदिर गिरा दिए गए। हिंदुओं को घोड़ी पर चढ़ना व पगड़ी बांधना निषेध कर दिया और एक खास टैक्स जिसको जजिया टैक्स कहा जाता था। हिंदु कौम में फूट व निर्बलता के कारण इन जुल्मों का विरोध नहीं हो रहा था। यहां तक कि राजपूतों ने अपनी बेटियों के रिश्ते भी मुगल राजाओं से शुरू कर दिए।

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत।

पुर्जा-पुर्जा कर मरे, कबहू ना छोड़े खेत।।

सिख धर्म के दसवें गुरु साहिब गुरु गोबिंद सिंह जी ने यह महसूस किया कि निर्बल हो चुकी हिंदु कौम में अलग से जीने की जागृति पैदा की जाए। उन्होंने 1699 में बिसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में अमृत पान करा कर एक अनोखी कौम तैयार की। जिसका नाम खालसा पंथ रखा। मई-जून 1704 में दिल्ली की सेना, सरहिंद व लाहौर सूबे की सेना व बाईधार के पहाड़ी राजाओं ने मिलकर गुरु गोबिंद सिंह जी पर आक्रमण कर दिया। सिखों ने पूरी ताकत से मुकाबला किया व सात महीने तक आनंदपुर साहिब के किले पर कब्जा नहीं होने दिया। आखिर में मुसलमान शासकों ने कुरान की कसम खा व हिंदु राजाओं ने गऊ माता की कसम खाकर गुरु जी से किला खाली कराने के लिए विनती की। 20 दिसंबर 1704 की रात को किला खाली कर दिया गया और गुरु जी अपनी सेना के साथ रोपड़ की तरफ कूच कर गए। सुबह जैसे ही मुगल सेना को पता चला, उन्होंने कसमें तोड़ते हुए गुरु जी पर हमला कर दिया। लड़ते-लड़ते सिख सिरसा नदी पार कर गए व चमकौर गढ़ी में 37 सिखों व गुरुजी और उनके दो बड़े साहिबजादों ने मोर्चा संभाला। यह संसार की अदभुत जंग थी क्योंकि 80 हजार मुस्लमानों से केवल 40 सिखों का मुकाबला था। जब सिखों का गोला बारूद खत्म हो गया तो गुरु जी ने 5-5 सिखों का जत्था बनाकर मैदाने जंग में भेजने शुरू कर दिए। बड़े साहिबजादे भी लड़ाई में गुरु जी की आज्ञा लेकर शामिल हुए व 17 और 15 साल की छोटी उम्र में ही युद्ध में जोहर दिखा कर शहीद हो गए। लेकिन सिखों ने शाम तक कब्जा नहीं होने दिया। गुरु साहिब जी के तीरों के आगे मुगल सेना असहाय बनी रही। रात को पांच सिखों ने गुरु जी के पांच प्यारों की हैसियत में गढ़ी को छोड़ कर चले जाने का हुकम दिया। गुरु जी हुकम मानते हुए ताड़ी मार कर व ललकार करके माकीवोड़ को चले गए।

दूसरी तरफ सिरसा नदी पार करते समय गुरु जी की माता गुजरी जी व दोनों छोटे साहिबजादे बिछड़ गए। गुरु जी का रसोईया गंगू ब्राह्मण उन्हें अपने गांव सहेड़ी ले गया। रात को उसने माताजी की सोने की मोहरों वाली गठरी चोरी कर ली। सुबह माता जी के पूछने पर आग बबूला हो गया और उसने गांव के चौधरी को गुरु जी के बच्चों के बारे में बता दिया। दूसरे दिन गंगू व चौधरी ने मोरिंडा के हाकिम को भी बता दिया। हाकिम ने सरहिंद के नवाब के पास साहिबजादों व माता जी को भेज दिया। नवाब ने उन्हें ठंड़े बुरज में कैद कर दिया। दो तीन दिन तक उन बच्चों को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया गया। जब वे ना माने तो उन्हें डराया धमकाया गया। ऊंचे पदों व रिश्तों के प्रलोभन भी दिए गए। लेकिन साहिबजादे ना डरे, ना लोभ में अपना धर्म बदलना स्वीकार किया। सुचानंद दिवान ने नवाब को उकसाया कि यह सांप के बच्चे हैं इन्हें कत्ल कर देना चाहिए। अंत में काजी बुलाया गया जिसने जिंदे ही दीवार में चिन कर मार देने का फतवा दे दिया। उस समय दरबार में मलेर कोटले का नवाब शेर मुहम्मद खां भी उपस्थित था। उसने इस फतबे का विरोध किया और दरबार से उठ कर चला गया। 27 दिसंबर 1704 में फतवे अनुसार बच्चों को दीवारों में चिना जाने लगा। जब दीवार घुटनों तक पहुंची तो घुटनों की चपनियों को तेसी से काटा गया ताकि दीवार टेड़ी न हो। जुल्म की हद हो गई। सिर तक दीवार के पहुंचने पर शाशल बेग व वाशल बेग जलादों ने तलवार में शीश कर साहिब जादों को शहीद कर दिया। उनकी शहादत की खबर सुन कर दादी माता भी प्रलोक सिधार गई। लाशों को खेतों में फेंक दिया गया। सरहिंद के एक हिंदु साहूकार जी रोडरमल को जब इसका पता चला तो उसने संस्कार करने की सोची। उसको कहा गया कि जितनी जमीन संस्कार के लिए चाहिए उतनी जगह पर सोने की मोहरे बिछानी पड़ेगी। कहते हैं कि उसने घर के सब जेवर व सोने की मोहरें बिछा करके साहिबजादों व माता गुजरी का दाह संस्कार किया। संस्कार वाली जगह पर बहुत संदर गुरुद्वारा जोती स्वरूप बना हुआ है। जबकि शहादत वाली जगह पर भी एक बहुत बड़ा गुरुद्वारा सशोभित है।


हर साल दिसंबर 25 से 27 दिसंबर तक बहुत भारी जोड़ मेला इस स्थान पर (फतेहगढ़ साहिब) लगता है जिसमें 15 लाख श्रद्धालु पहुंच कर साहिबजादों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। 6 व 8 साल के साहिबजादे बाबा फतेह सिंह और जोरावर सिंह जी दुनिया को बेमिसाल शहीदी पैगाम दे गए। वे दुनिया में अमर हो गए। साहिबजादों की शहीदी पर एक मुसलमान लेखिक ने कितना सुंदर वर्णन किया है- सद साल और जी के भी मरना जरूर था, सर कौम से बचाना यह गैरत से दूर था। मगर गुलाम मानसिकता के रोगी आज के इंडियन अपनी गरिमा और गौरव को भूलों मत याद रखो।

इंटरनेट पर संस्कृत के साधन

कंप्यूटर के युग में 'संस्कृत भाषा' की महत्ता एक बार फिर से परिभाषित हो रही है । भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान करने वाले विश्व के कई विशेषज्ञ देवभाषा संस्कृत का सम्मान विश्व की सबसे वैज्ञानिक भाषा के रूप में करते हैं । कंप्यूटर के संचालन के लिए संस्कृत सर्वश्रेठ भाषा है ये भी एक स्थापित तथ्य है । प्राचीनतम शास्त्रों और सिध्दातों की अभिव्यक्ति का माध्यम रही ये भाषा नई तकनीक और विज्ञान को भी एक नई दिशा देने में समर्थ हैं  |

ये  कुछ वेबसाइट और ब्लॉग पते हैं जहाँ पर संस्कृतप्रेमी अपने आप को संस्कृतमय कर सकते हैं




आशा  है , आपको मेरा प्रयास पसन्द आएगा |

आधे लीटर गोमूत्र से 28 घंटे सीफलएल बल्ब जलाया जा सकता है

सिर्फ आधे लीटर गोमूत्र से आप 28 घंटे न केवल एक सीफलएल बल्बजला सकते हैं, बल्कि मोबाइल भी चार्ज कर सकते हैं। भौती गोशाला,कानपुर ने गोज्योति नाम से ऐसा लैंप विकसित किया है जिसमें आधालीटर गोमूत्र से एक सप्ताह तक झोपड़ी रोशन की जा सकती है। खासबात यह है कि इस संयंत्र के उपयोग में अन्य किसी प्रकार का कोई खर्चनहीं होता।भौती गोशाला में एक ऐसी बैट्री तैयार की गई है जो सिर्फगोमूत्र से चार्ज होती है। छह वोल्ट की इस बैट्री में आधा लीटर गोमूत्रडाल देते हैं, इसके बाद सीफल का बैट्री से कनेक्शन कर देते हैं।

सुविधानुसार स्विच भी लगा देते हैं। स्विच ऑन करते ही सीफल बल्ब जल उठती है। इस बैट्री से एक अन्य लिंक निकालकर मोबाइल चार्जर भी लगा दिया जाता है। गोशाला सोसाइटी के उपाध्यक्ष एवं पूर्व सांसद प्रेम मनोहर के अनुसार, एक गोज्योति बनाने की लागत करीब डेढ़ हजार रूपये आती है। बल्क में बनाने पर यह लागत और भी घट सकती है। आधे लीटर गोमूत्र से 28 घंटे तक बल्ब जल सकता है।गोमूत्र के इस अनुंसधान ने आई.आई.टी और एचबीटीआई जैसे उच्च तकनीकी संस्थान भी हतप्रभ हैं।

उन्होंने भी माना कि गोमूत्र में वह शक्ति है, जिससे बल्ब जल सकता है। गोशाला की इस अनोखी गोज्योति को देखकर अभी गुजरात के एक स्वयंसेवी संगठन ने दो हजार लैंप तैयार करने का ऑर्डर भी दिया है। इसका अति पिछड़े गैर विद्युतीकृत ग्रामीण इलाकों में वितरण किया जाएगा। ध्यान रहे कि कानपुर गोशाला सोसायटी ने बीते वर्ष ही गोबर से सीएनजी तैयार की थी, जिससे सफलतापूर्वक कार चलायी जाती है। गोशाला सोसायटी के सदस्य सुरेश गुप्ता बताते हैं कि अगर सरकार गो-ज्योति को प्रोत्साहित करे तो देश की वे झोपड़ियां भी सहजता से रोशन हो सकती हैं जहां अभी बिजली की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

तुम मुझे गाय दो, मैं तुम्हे भारत दूंगा


मित्रों शीर्षक पढ़कर चौंकिए मत| मैं कोई नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसा नारा लगाकर उनके समकक्ष बनने का प्रयास नहीं कर रहा| उनके समकक्ष बनना तो दूर यदि उनके अभियान का योद्धा मात्र भी बन सका तो स्वयं को भाग्यशाली समझूंगा|

अभी जो शीर्षक मैंने दिया, वह एक अटल सत्य है| यदि भारत निर्माण करना है तो गाय को बचाना होगा| एक भारतीय गाय ही काफी है सम्पूर्ण भारत की अर्थव्यवस्था चलाने के लिए| किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की आवश्यकता ही नहीं है| ये कम्पनियां भारत बनाने नहीं, भारत को लूटने आई हैं|

खैर अब मुद्दे पर आते हैं|मैं कह रहा था कि मुझे भारत निर्माण के लिए केवल भारतीय गाय चाहिए| यदि गायों का कत्लेआम भारत में रोक दिया जाए तो यह देश स्वत: ही उन्नति की ओर अग्रसर होने लगेगा| मैं दावे के साथ कहता हूँ कि केवल दस वर्ष का समय चाहि
ए| दस वर्ष पश्चात भारतीय अर्थव्यवस्था सबसे ऊपर होगी| आज की सभी तथाकथित महाशक्तियां भारत के आगे घुटने टेके खड़ी होंगी|

सबसे पहले तो हम यह जानते ही हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है| कृषि ही भारत की आय का मुख्य स्त्रोत है| ऐसी अवस्था में किसान ही भारत की रीढ़ की हड्डी समझा जाना चाहिए| और गाय किसान की सबसे अच्छी साथी है| गाय के बिना किसान व भारतीय कृषि अधूरी है| किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में किसान व गाय दोनों की स्थिति हमारे भारतीय समाज में दयनीय है|

एक समय वह भी था जब भारतीय किसान कृषि के क्षेत्र में पूरे विश्व में सर्वोपरि था| इसका कारण केवल गाय है| भारतीय गाय के गोबर से बनी खाद ही कृषि के लिए सबसे उपयुक्त साधन है| गाय का गोबर किसान के लिए भगवान् द्वारा प्रदत एक वरदान है| खेती के लिए भारतीय गाय का गोबर अमृत है| इसी अमृत के कारण भारत भूमि सहस्त्रों वर्षों से सोना उगलती आ रही है|

किन्तु हरित क्रान्ति के नाम पर सन १९६० से १९८५ तक रासायनिक खेती द्वारा भारतीय कृषि को नष्ट कर दिया गया| हरित क्रान्ति की शुरुआत भारत की खेती को उन्नत व उत्तम बनाने के लिए की गयी थी| किन्तु इसे शुरू करने वाले आज किस निष्कर्ष तक पहुंचे होंगे?

रासायनिक खेती ने धरती की उर्वरता शक्ति को घटा कर इसे बाँझ बना दिया| साथ ही साथ इसके द्वारा प्राप्त फसलों के सेवन से शरीर न केवल कई जटिल बिमारियों की चपेट में आया बल्कि शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी घटी है|

वहीँ दूसरी ओर गाय के गोबर से बनी खाद से हमारे देश में हज़ारों वर्षों से खेती हो रही थी| इसका परिणाम तो आप भी जानते ही होंगे| किन्तु पिछले कुछ दशकों में ही हमने अपनी भारत माँ को रासायनिक खेती द्वारा बाँझ बना डाला|

इसी प्रकार खेतों में कीटनाशक के रूप में भी गोबर व गौ मूत्र के उपयोग से उत्तम परिणाम वर्षों से प्राप्त किये जाते रहे| गाय के गोबर में गौ मूत्र, नीम, धतुरा, आक आदि के पत्तों को मिलाकर बनाए गए कीटनाशक द्वारा खेतों को किसी भी प्रकार के कीड़ों से बचाया जा सकता है| वर्षों से हमारे भारतीय किसान यही करते आए हैं| किन्तु आज का किसान तो बेचारा रासायनिक कीटनाशक का छिडकाव करते हुए स्वयं ही अपने प्राण गँवा देता है| कई बार किसान कीटनाशकों की चपेट में आकर मर जाते हैं| ज़रा सोचिये कि जब ये कीटनाशक इतने खतरनाक हैं तो पिछले कई दशकों से हमारी धरती इन्हें कैसे झेल रही होगी? और इन कीटनाशकों से पैदा हुई फसलें जब भोजन के रूप में हमारी थाली में आती हैं तो क्या हाल करती होंगी हमारा?

केवल चालीस करोड़ गौवंश के गोबर व मूत्र से भारत में चौरासी लाख एकड़ भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकता है| किन्तु रासायनिक खेती के कारण आज भारत में १९० लाख किलो गोबर के लाभ से हम भारतवासी वंचित हो रहे हैं|

किसी भी खेत की जुताई करते समय चार से पांच इंच की जुताई के लिए बैलों द्वारा अधिकतम पांच होर्स पावर शक्ति की आवश्यकता होती है| किन्तु वहीँ ट्रैक्टर द्वारा इसी जुताई में ४० से ५० होर्स पावर के ट्रैक्टर की आवश्यकता होती है| अब ट्रैक्टर व बैल की कीमत के अंतर को बहुत सरलता से समझा जा सकता है| वहीँ ट्रैक्टर में काम आने वाले डीज़ल आदि का खर्चा अलग है| इसके अतिरिक्त भूमि के पोषक जीवाणू ट्रैक्टर की गर्मी से व उसके नीचे दबकर ही मर जाते हैं|

इसके अलावा खेतों की सींचाई के लिए बैलों के द्वारा चालित पम्पिंग सेट और जनरेटर से ऊर्जा की आपूर्ति भी सफलता पूर्वक हो रही है| इससे अतिरिक्त बाह्य ऊर्जा में होने वाला व्यय भी बच गया|यदि भारतीय कृषि में गौवंश का योगदान मिले तो आज भी भारत भूमि सोना उगल सकती है| सदियों तक भारत को सोने की चिड़िया बनाने में गाय का ही योगदान रहा है|

ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में भी पशुधन का उपयोग लिया जा सकता है| आज भारत में विधुत ऊर्जा उत्पादन का करीब ६७ प्रतिशत थर्मल पावर से, २७ प्रतिशत जलविधुत से, ४ प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से व २ प्रतिशत पवन ऊर्जा के द्वारा हो रहा है|

थर्मल पावर प्लांट में विधुत उत्पादन के लिए कोयला, पैट्रोल, डीज़ल व प्राकृतिक गैस का उपयोग किया जाता है| इसके उपयोग से कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन वातावरण में हो रहा है| जिससे वातावरण के दूषित होने से भिन्न भिन्न प्रकार के रोगों का जन्म अलग से हो रहा है|

जलविधुत परियोजनाएं अधिकतर भूकंपीय क्षेत्रों में होने के कारण यहाँ भी खतरे की घंटी है| ऐसे में किसी भी बाँध का टूट जाना करोड़ों लोगों को प्रभावित कर सकता है| टिहरी बाँध के टूटने से चालीस करोड़ लोग प्रभावित होंगे|

परमाणु ऊर्जा के उपयोग का एक भयंकर परिणाम तो हम अभी कुछ समय पहले जापान में देख ही चुके हैं| परमाणु विकिरणों के दुष्प्रभाव को कई दशकों बाद भी देखा जाता है|

जबकि यहाँ भी गौवंश का योगदान लिया जा सकता है| स्व. श्री राजीब भाई दीक्षित अपने पूरे जीवन भर इस अनुसन्धान में लगे रहे व सफल भी हुए| उनके द्वारा बनाए गए गोबर गैस संयत्र से गोबर गैस को सिलेंडरों में भरकर उसे ईंधन के रूप में उपयोग लिया जा सकता है| आज एक साधारण कार को पैट्रोल से चलाने में करीब चार रुपये प्रति किलोमीटर के हिसाब से खर्च होता है| जिस प्रकार से पैट्रोल, डीज़ल के दाम बढ़ रहे हैं, यह खर्च आगे और भी बढेगा| वहीँ दूसरी और गोबर गैस के उपयोग से उसी कार को ३५ से ४० पैसे प्रति किलोमीटर के हिसाब से चलाया जा सकता है|


आईआईटी दिल्ली ने कानपुर गोशाला और जयपुर गोशाला अनुसंधान केन्द्रों के द्वारा एक किलो सी .एन.जी. से २५ से ४० किलोमीटर एवरेज दे रही तीन गाड़ियां चलाई जा रही है|रसोई गैस सिलेंडरों पर भी यह बायोगैस बहुत कारगर सिद्ध हुई है| सरकार की भ्रष्ट नीतियों के चलते आज रसोई गैस के दाम भी आसमान तक पहुँच गए हैं, जबकि गोबर गैस से एक सिलेंडर का खर्च केवल ५० से ७० रुपये तक आँका गया है|

इसी बायोगैस से अब हैलीकॉप्टर भी जल्द ही चलाया जा सकेगा| हम इस अनुसन्धान में अब सफलता के बहुत करीब हैं|गोबर गैस प्लांट से करीब सात करोड़ टन लकड़ी बचाई जा सकती है, जिससे करीब साढ़े तीन करोड़ पेड़ों को जीवन दान दिया जा सकता है| साथ ही करीब तीन करोड़ टन उत्सर्जित कार्बन डाई आक्साइड को भी रोका जा सकता है|

पैट्रोल, डीज़ल, कोयला व गैस तो सब प्राकृतिक स्त्रोत हैं, किन्तु यह बायोगैस तो कभी न समाप्त होने वाला स्त्रोत है| जब तक गौवंश है, तब तक हमें यह ऊर्जा मिलती रहेगी|हाल ही में कानपुर की एक गौशाला ने एक ऐसा सीऍफ़एल बल्ब बनाया है जो बैटरी से चलता है| इस बैटरी को चार्ज करने के लिए गौमूत्र की आवश्यकता पड़ती है| आधा लीटर गौमूत्र से २८ घंटे तक सीऍफ़एल जलता रहेगा|यदि सरकार चाहे तो इस क्षेत्र में सकारात्मक कदम उठाकर इससे भारी मुनाफा कमाया जा सकता है|

इसके अतिरिक्त चिकित्सा के क्षेत्र में तो भारतीय गाय के योगदान को कोई झुठला ही नहीं सकता| हम भारतीय गाय को ऐसे ही माता नहीं कहते| इस पशु में वह ममता है जो हमारी माँ में है|भारतीय गाय की रीढ़ की हड्डी में सूर्यकेतु नाड़ी होती है| सूर्य के संपर्क में आने पर यह स्वर्ण का उत्पादन करती है| गाय के शरीर से उत्पन्न यह सोना गाय के दूध, मूत्र व गोबर में भी होता है|

अक्सर ह्रदय रोगियों को घी न खाने की सलाह डॉक्टर देते रहते हैं| साथ ही एलोपैथी में ह्रदय रोगियों को दवाई में सोना ही कैप्सूल के रूप में दिया जाता है| यह चिकित्सा अत्यंत महँगी साबित होती है|जबकि आयुर्वेद में ह्रदय रोगियों को भारतीय गाय के दूध से बना शुद्ध घी खाने की सलाह दी जाती है| इस घी में विद्यमान स्वर्ण के कारण ही गाय का दूध व घी अमृत के समान हैं|गाय के दूध का प्रतिदिन सेवन अनेकों बीमारियों से दूर रखता है|

गौ मूत्र से बनी औषधियों से कैंसर, ब्लडप्रेशर, अर्थराइटिस, सवाईकल हड्डी सम्बंधित रोगों का उपचार भी संभव है| ऐसा कोई रोग नहीं है, जिसका इलाज पंचगव्य से न किया जा सके|यहाँ तक कि हवन में प्रयुक्त होने वाले गाय के घी व गोबर से निकलने वाले धुंए से प्रदुषण जनित रोगों से बचा जा सकता है| हवन से निकलने वाली गैसों में इथीलीन आक्साइड, प्रोपीलीन आक्साइड व फॉर्मएल्डीहाइड गैसे प्रमुख हैं|

इथीलीन आक्साईड गैस जीवाणु रोधक होने पर आजकल आपरेशन थियेटर से लेकर जीवन रक्षक औषधियों के निर्माण में प्रयोग मे लायी जा रही है। वही प्रोपीलीन आक्साइड गैस का प्रयोग कृत्रिम वर्षा कराने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है|साथ ही गाय के दूध से रेडियो एक्टिव विकिरणों से होने वाले रोगों से भी बचा जा सकता है|यदि सरकार वैदिक शिक्षा पर कुछ शोध करे तो दवाइयों पर होने वाले करीब दो लाख पचास हज़ार करोड़ के खर्चे से छुटकारा पाया जा सकता है|

अब आप ही बताइये कहने को तो गाय केवल एक जानवर है, किन्तु इतने कमाल का एक जानवर क्या हमें ऐसे ही बूचडखानों में तड़पती मौत मरने के लिए छोड़ देना चाहिए?कुछ तो कारण है जो हज़ारों वर्षों से हम भारतीय गाय को अपनी माँ कहते आए हैं|भारत निर्माण में गाय के अतुलनीय योगदान को देखते हुए शीर्षक की सार्थकता में मुझे यही शीर्षक उचित लगा|