Thursday 22 May 2014

बन्दा बहादुर सिहं

प्रारम्भिक जीवन – लच्छमन दास का जन्म
1670 ईस्वी में ऐक राजपूत परिवार में
हुा था। उसे शिकार का बहुत शौक था। ऐक दिन
उस ने ऐक हिरणी का शिकार किया । मरने से
पहले लच्छमन दास के सामने ही हिरणी ने
दो शावकों को जन्म दे दिया। इस घटना से वह
स्तब्द्ध रह गया और उस के मन में वैराग्य जाग
उठा। संसार को त्याग कर वह बैरागी साधू
‘माधवदास’ बन गया तथा नान्देड़
(महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट पर
कुटिया बना कर रहने लगा।
पलायनवाद से कर्म योग – आनन्दपुर
साहिब में खालसा पंथ की स्थापना कर के गुरु
गोबिन्दसिहँ दक्षिण चले गये थे। संयोगवश उन
की मुलाकात बैरागी माधवदास से हो गयी।
गुरु जी ने उसे उत्तरी भारत में हिन्दूओं
की दुर्दशा के बारे में बताया तथा पलायनवाद
का मार्ग छोड कर धर्म रक्षा के लिये हथियार
उठाने के कर्मयोग की प्रेरणा दी, और उस
का हृदय परिवर्तन कर दिया। गुरूजी ने उसे
नयी पहचान ‘बन्दा बैरागी बहादुर सिंह’
की दी। प्रतीक स्वरुप उसे अपने तरकश से ऐक
तीर, ऐक नगाडा तथा पंजाब में अपने शिष्यों के
नाम ऐक आदेश पत्र (हुक्मनामा) भी लिख कर
दिया कि वह मुगलों के जुल्म के विरुद्ध
बन्दा बहादुर को पूर्ण सहयेग दें। इस के पश्चात
तीन सौ घुडसवारों की सैनिक टुकडी ने आठ कोस
बन्दा बहादुर के पीछे चल कर उसे
भावभीनी विदाई दी। बन्दा बहादुर पँजाब आ
गये।
प्रतिशोध - पँजाब में हिन्दूओं तथा सिखों ने
बन्दा बहादुर सिहँ का अपने सिपहसालार
तथा गुरु गोबिन्द सिहं के प्रतिनिधि के तौर
पर स्वागत किया। ऐक के बाद ऐक,
बन्दा बहादुर ने मुगल प्रशासकों को उन के
अत्याचारों और नृशंस्ता के लिये सज़ा दी।
शिवालिक घाटी में स्थित मुखलिसपुर
को उन्हों ने अपना मुख्य स्थान बनाया। अब
बन्दा बहादुर और उन के दल के चर्चे स्थानीय
मुगल शासकों और सैनिकों के दिल में सिहरन
पैदा करने लगे थे। उन्हों ने गुरु गोबिन्द सिहँ के
पुत्रों की शहादत के जिम्मेदार मुगल सूबेदार
वज़ीर खान को सरहन्द के युद्ध में मार
गिराया। इस के अतिरिक्त गुरु गोबिन्द सिहँ
के परिवार के प्रति विशवासघात कर के उसे
वजीर खान को सौंपने वाले
ब्राह्मणों तथा रँघरों को भी सजा दी।
अपनों की ग़द्दारी – अन्ततः दिल्ली से
मुगल बादशाह ने बन्दा बहादुर के विरुध
अभियान के लिये अतिरिक्त सैनिक भेजे।
बन्दा बहादुर को साथियों समेत मुगल सैना ने
आठ मास तक अपने घेराव में रखा।
साधनों की कमी के कारण उन का जीना दूभर
हो गया था और केवल उबले हुये पत्ते,
पेडों की छाल खा कर भूख मिटाने की नौबत आ
गयी थी। सैनिकों के शरीर अस्थि-पिंजर बनने
लगे थे। फिर भी बन्दा बहादुर और उन के
सैनिकों ने हार नहीं मानी। आखिरकार कुछ
गद्दारों की सहायता और छल कपट से मुगलों ने
बन्दा बहादुर को 740 वीरों समेत
बन्दी बना लिया।
अमानवीय अत्याचार – 26
फरवरी 1716 को पिंजरों में बन्द कर के
सभी युद्ध
बन्दियों को दिल्ली लाया गया था। लोहे
की ज़ंजीरों से बन्धे 740 कैदियों के अतिरिक्त
700 बैल
गाडियाँ भी दिल्ली लायी गयीं जिन पर
हिन्दू सिखों के कटे हुये सिर लादे गये थे और
200 कटे हुये सिर भालों की नोक पर टाँगे गये
थे। तत्कालिक मुगल बादशाह फरुखसैय्यर के
आदेशानुसार दिल्ली के निवासियों नें 29
फरवरी 1716 के मनहूस दिन वह
खूनी विभित्स प्रदर्शनी जलूस अपनी आँखों से
देख कर उन वीर बन्दियों का उपहास
किया था।
अपमानित करने के लिये बन्दा बहादुर सिहँ
को लाल रंग की सुनहरी पगडी पहनाई
गयी थी तथा सुनहरी रेशमी राजसी वस्त्र
भी पहनाये गये थे। उसे पिंजरे में बन्द कर के,
पिंजरा ऐक हाथी पर रखा गया था। उस के
पीछे हाथ में नंगी तलवार ले कर ऐक जल्लाद
को भी बैठाया गया था। बन्दा बहादुर के
हाथी के पीछे उस के 740 बन्दी साथी थे जिन
के सिर पर भेड की खाल से
बनी लम्बी टोपियाँ थीं। उन के ऐक हाथ
को गर्दन के साथ बाँधे गये
दो भारी लकडी की बल्लियों के बीच में
बाँधा गया था।
प्रदर्शन के पश्चात उन सभी वीरों को मौत के
घाट उतारा गया। उन के कटे शरीरों को फिर
से बैल गाडियों में लाद कर नगर में
घुमाया गया और फिर गिद्धों के लिये खुले में फैंक
दिया गया था। उन के कटे हुये सिरों को पेडों से
लटकाया गया। उल्लेखनीय है कि उन में से
किसी भी वीर ने क्षमा-याचना नहीं करी थी।
बन्दा बहादुर को अभी और यतनाओं के लिये
जीवित रखा हुआ था।
विभीत्समय अन्त – 9 जून 1716
को बन्दा बहादुर के चार वर्षीय पुत्र अजय
सिहँ को उस की गोद में बैठा कर, पिता पुत्र
को अपमान जनक जलूस की शक्ल में कुतब मीनार
के पास ले जाया गया। बन्दा बहादुर को अपने
पुत्र को कत्ल करने का आदेश दिया गया जो उस
ने मानने से इनकार कर दिया। तब जल्लाद ने
बन्दा बहादुर के सामने उन के पुत्र के टुकडे टुकडे
कर डाले और उन रक्त से भीगे
टुकडों को बन्दा बहादुर के मुहँ पर फैंका गया।
उस का कलेजा निकाल कर उस के मूहँ में
ठोंसा गया। वह बहादुर सभी कुछ स्तब्द्ध
हो कर घटित होता सहता रहा। अंत में जल्लाद
ने खंजर की नोक से बन्दा बहादुर की दोनों आँखें
ऐक ऐक कर के निकालीं, ऐक ऐक कर के पैर
तथा भुजायें काटी और अन्त में लोहे की गर्म
सलाखों से उस के जिस्म का माँस नोच दिया।
उस के शरीर के सौ टुकडे कर दिये गये।
शर्मनाक उपेक्षा – आदि काल से ले कर आज
तक हिन्दू विजेताओं ने कभी इस प्रकार
की क्रूरता नहीं की थी। आज भारत में औरंगजेब
के नाम पर औरंगाबाद और फरुखसैय्यर के नाम पर
फरुखाबाद तो हैं किन्तु बन्दा बहादुरसिंह
का कोई स्मारक नहीं है।

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