Wednesday 30 November 2016

प्रभु जिसको चाहते है उसके लौकिक सुख हर लेते हैं

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🗝    लौकिक(भौतिक) सुखो की प्राप्ति का प्रयत्न न हो पाये तो मान लो कि ठाकुर जी ने कृपा की है। परमेश्वर जिस किसी जीव पर अधिक कृपा करते हैं उसे लौकिक सुख अधिक नही देते।

🗝       लौकिक(भौतिक) सुख मिलने पर जीव ईश्वर से विमुख हो जाता है। प्रभु का नाम स्मरण लौकिक सुखो की प्राप्ति के लिये कभी मत करो। लौकिक सुख में विघ्न उपस्थित होने पर समझ लो कि प्रभु मुझे अलौकिक सुख देने जा रहे हैं।

🗝     जिस जीव पर प्रभु की विशेष कृपा होती है उसका लौकिक(भौतिक) सुख प्राप्ति का प्रयत्न भगवान सफल नहीं होने देते। जिस जीव पर वे साधारण कृपा करते हैं उसे सुख देते हैं । हरेकृष्ण 🙏🌺

सनातन संस्कृति संघ/भारत स्वाभिमान दल

​क्या ईश्वर सिर्फ कल्पना हैं ? 

​क्या ईश्वर सिर्फ कल्पना है ? 

पहले हमें समझना होगा , ईश्वर क्या है? कैसा है  ? यथार्थ में ईश्वर एक शक्ति हैं, pure life energy हैं, pure living energy है जिसे हम consciousness कहते हैं science की भाषा में, और वेदांत की भाषा नें उसको ब्रह्म कहते हैं।

ईश्वर एक infinite , अनंत consiousness energy का फील्ड है, जैसे की मॅग्नेटिक field होता है । ईश्वर एक शक्ति हैं, energy हैं, जिस energy से सारा अपने आप कार्य कारण भाव से , cause - effect से विश्व भासीत होता है, उस original life energy को ईश्वर, परमात्मा, देव, भगवान कहा गया है यह बात साफ साफ समझनी चाहिए।

एक infinite original living energy field के gradual consolidification के कारण प्रकृति का , पंचभूतों का, matter का, पदार्थ का निर्माण होना भासीत होता है , जैसे आकाश में वायु होती है , वायु में वाष्प होता है, वाष्प सघन हो जाय तो बादल बनते है, बादल थंडा हो जाये तो जल बन जाता है, जल अधिक ठंडा हो जाये तो बर्फ बन जाता है ठीक इसी तरह उस

Consciousness के सघन होनेसे

Gradually पंचभूत बनते है , universal consciousness से आकाश बनता है, आकाश से वायु बनती है, वायु से अग्नि बनती है, जल बनता है, लावा बनता है, लावा ठंडा होने से फिर पृथ्वी तत्व बनता है,

वाष्प से बर्फ बनने जैसी यह self sustaining self maintaining घटना है , कार्य कारण भाव है, यहां न कोई मनुष्य स्वरूप व्यक्ति स्वरूप ईश्वर है, न कोई नियंत्रक है, न कोई controller है, जो भी है वह सिर्फ और सिर्फ universal consciousness है, जो मन का सूक्ष्मतम स्वरूप है। जिसे कोई दुर्लभ ही जानता है , अनुभव करता है, जो स्वयं ही universal हो जाता है, अनंत हो जाता है । चिरंतन हो जाता है ।...

जो लोग ईश्वर को परंपरा से मानते है वे ईश्वर का खोज नहीं करते ,बस मानते है बिना जाने और जो ईश्वर को नकारते है वे भी बिना जाने ही नकारते है, ये दोनों तरह के लोगो को ईश्वर कभी समझ में आता ही नहीं है, वे अपनी अपनी मान्यता में, सम्मोहन में, परंपरा में, अंधश्रद्धा में, अंध विश्वास में अटके हुये कुपमण्डूक लोग है ।

धर्म के आधारभूत मूल ग्रंथों का सही आकलन हो जाय तो समझ में आता है की सभी एकही मिलती जुलती बात कह रहे है , गलती तो समझने वालो की होती है जो 

मान्यता के कारण कुछ का कुछ समझ बैठते है जो एक सम्मोहन है।
सबका कहना एक है , सब उस शक्तिको निर्गुण ,निराकार कहते है ,उसका कोई जन्म नहीं, कोई मृत्यु नहीं, उसकी कोई माँ नहीं, उसका कोई पिता नहीं, वह न पैदा होता है न मरता है। सामान्य बुद्धि में यह बात पकड में नहीं आती , यह तो अनुभव की बात है , सूनने से, पढ लेने से, मानने से, विश्वास से वह शक्ति समझ में नहीं आती, उसके लिये आत्मज्ञानी महापुरूष से भेट आवश्यक है जो वास्तविक तत्व को समझा सकता है, जो व्यक्ति उस तत्व से एकरूपता अनुभव कर चुका है वही सही मार्गदर्शन कर सकता है, आज विश्व भर में फैले कथाकथित लाखों गुरूओं में से कोई दो- चार ही आत्मज्ञानी गुरू होगे, वाचाल तो बहुत होगे, चमत्कारी बहुत होगे, पर सच्चे आत्मज्ञानी महापुरूष दो- चार ही मिलेगे। भारत वर्ष में ऐसे व्यक्ति को संत, मुनि, ज्ञानी, सद्गुरू कहा जाता हैं।

इनमे कोई मतभेद नहीं है, मतभेद तो हमारे मान्यताओं में है , जो एक तरह की अंधता है दुसरा कुछ नहीं।

सृष्टी एक cause -effect है , जो एक mind - matter phenomenon है, जिसे कृष्ण परमात्मा कहते है , सारा विश्व एक ही वस्तु से बना है जिसे ईश्वर कहा गया है , इसलिये कहा जाता है की कण कण में ईश्वर है, कण कण में ब्रह्म हैं।

ईश्वर को मनुष्य रूप में मानने से संप्रदाय निर्मित हुये है, जो एक दुसरे से झगडते रहते है अज्ञान के कारण, अन्यथा झगडा होने का कोई कारण नहीं है, राजनीति करने वाले, कराने वाले लोग जो कुछ नहीं जानते, जिन्हें सिर्फ सत्ता चाहिये वे ही यहां दंगे फसाद करवाते है, युद्ध, आतंकवाद, नपुंसकता फैलाते है, उनसे सबको दूर रहना चाहिये ।

ईश्वर एक है , एक ओंकार सतनाम , एकं ब्रह्मं , एकोदेव महेश्वर,

पुराने ज्ञानी यह जानते थे इसलिये 6

वैदिक दर्शनों के साथ 6 अवैदिक दर्शन भी दर्शन शास्त्र कि शोभा बढ़ाते है, इतना ही नही सांख्य और वेदांत जैसे वैदिक दर्शन भी ईश्वर को मनुष्य स्वरूप, व्यक्ति स्वरूप नही मानते ।
💐🙏सनातन संस्कृति संघ🙏💐

Sunday 27 November 2016

वेदों में परिवर्तन नही हो सकता है

वेदों में परिवर्तन नही हो सकता है |(वेद की आंतरिक साक्षी के आधार पर )
वेदों में परिवर्तन या क्षेपक नही हो सकता है इसकी आंतरिक
साक्षी स्वयम वेद देता है -
" ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिदेवा अधि विश्वे निषेदू: |
यस्तन्न वेद किमचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ||
- ऋग्वेद १/१६४/३९
अर्थ - ऋचाये (वेद मन्त्र ) अविनाशी ओम में स्थित है | जिस में सारे देव स्थित हुए है | जो उस अविनाशी को नही जानता वह ऋचाओं से क्या करेगा | जो ही उसे जानते है वे ही अमृत में स्थित है |
इस मन्त्र की व्याख्या निरुक्त में यास्क ऋषि शाकपुर्णी ऋषि और कौषतिकी ब्राह्मण के प्रमाण से करते है -
" ऋचो अक्षरे परमे व्यवने यस्मिन्देवा अधिनिन्णा: सर्वे| यस्तन्न वेद कि स ऋचा करिष्यति | य इत्तद्विदुस्त इमे समासते इति विदुष उपदिशति | कतमत्तदेतदत्तक्षरम | ओमित्येषा वागिति शाकपुणि: |
ऋचश्च अक्षरे परमे व्यवने धीयन्ते | नानादेवतेषु च मन्त्रेषु |
अर्थ - ऋचाये परम अक्षर में विशेष रक्षित है |
यहा अक्षर क्या है ?
इसी पर १३/१२ में यास्क लिखते है - अक्षर न क्षरति | न क्षीयते वा | अर्थात जो क्षीण नही होता और नष्ट नही होता |
इससे ईश्वर,जीव और प्रक्रति तीनो अक्षर हुए |
ईश्वर और जीव के अक्षर होने की पुष्टि भगवतगीता भी करती है -
द्वाविमौ पुरुषो लोके क्षरश्चाक्षर एव च |
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोSक्षर उच्यते ||
उत्तम पुरुषस्तवन्य: परमात्मत्युदाहृत: |
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: || (गीता १५ /१६-१७ )
अर्थात जगत में दो पदार्थ है क्षर और अक्षर | कार्य जगत क्षर है और ह्रदय गुहा में रहने वाला जीव अक्षर है और उससे भी उत्तम तीनो लोको को धारण करने वाला ईश्वर परम पुरुष अक्षर है |
अक्षर ब्रह्म परम स्वभावोSध्यात्ममुच्यते (गीता ८/३ )
परम पुरुष ईश्वर अक्षर है उसके परम स्वभाव को अध्यात्म कहते है |
इनसे स्पष्ट है कि अक्षर जीव ,ईश्वर और प्रक्रति के लिए प्रयुक्त हो सकता है |
यास्क ने यहा परम अक्षर लिखा है परम शब्द से इस मन्त्र में ईश्वर का ग्रहण होगा | अर्थात ऋचाये परम अक्षर ईश्वर में विशेष रूप से रक्षित है | जिस में सारे देव स्थित है | जो उसे नही जानता वो ऋक का क्या करेगा | जो उसे जानते है वो विद्वानों के प्रति उपदेश करता है कि वह अक्षर कौनसा है ? ओम ही वह अक्षर है यह शाकपुणि कहते है |
छान्दोग्योपनिषद् और अन्य उपनिषद में ओम को ईश्वर का नाम कहा है | इसे प्रणव और उद्गीत भी कहते है | योगदर्शन कार पतंजली मुनि कहते है -तस्य वाचक प्रणव: अर्थात ईश्वर का वाचक प्रणव ओम है | इसी को शाकपुणि ऋषि परम अक्षर कहते है |मह्रिषी दयानंद सरस्वती जी ओम को ईश्वर का निज नाम कहते है |
वे सत्यार्थ प्रकाश प्रथमसमुल्लास में लिखते है -
" ओ खम्ब्रह्म (यजु. ४०/१७ )
ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत -छान्दोग्योपनिषद्
- आकाशवत व्यापक होने से सबसे बड़ा होने से ईश्वर ओम का नाम ब्रह्म है |
-ओम जिसका नाम और जो कभी नष्ट नही होता ,उसी की उपासना करना योग्य है अन्य की नही |
इस तरह ओम ईश्वर का वाचक है |
शाकपुणि आगे कहते है - ऋचाये निश्चय ही उस अविनाशी परम अक्षर में स्थित है |
नाना देवताओं वाले मन्त्रो में यह अक्षर है | इससे सारी त्रिविद्या है यह ब्राह्मण कौषतिकी ब्राह्मण में कहा गया है |
यास्क ऋषि ने शाकपुणि और ब्राह्मण ग्रन्थ के प्रमाण से बताया कि ऋचाये परम अक्षर में सुरक्षित है | मैंने परम अक्षर और ओम को ईश्वर के लिए सिद्ध किया | इससे स्पष्ट होता है कि सभी वैदिक ऋचाये ईश्वर में सुरक्षित है | वेद ईश्वर का ज्ञान है अर्थात यह नित्य है क्यूंकि ईश्वर के नित्य होने से उसका ज्ञान भी नित्य ही होगा | ईश्वर में कोई परिवर्तन नही होता है इससे उसके ज्ञान उसके नियमो जों मानव के लिए ४ ऋषियों पर ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद और अर्थववेद नाम से प्रकाशित हुआ में भी कोई परिवर्तन नही हो सकता है | स्वयम मन्त्र इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि ऋचाये परम अक्षर में रक्षित है |अत: वेद कभी भी किसी भी उपाय से नष्ट नही हो सकते है क्यूंकि वे सर्वव्यापक ,सर्वज्ञानी ओम में स्थित है |

Thursday 24 November 2016

सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ?

सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ?
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ....
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महाराजा रणजीतसिंह जी ने जब अटक के किले पर आक्रमण किया था तब उस समय मार्ग की एक बरसाती नदी में बाढ़ आई हुई थी| किले का किलेदार और सभी पठान सिपाही निश्चिन्त होकर सो रहे थे कि रात के अँधेरे में रणजीतसिंह की फौज नदी को पार नहीं कर पायेगी| अगले दिन किले के पठानों को आसपास से और भी सहायता मिलने वाली थी|
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आधी रात का समय था और रणजीतसिंह जी के सामने नदी पार करने के अतिरिक्तं कोई अन्य विकल्प नहीं था| उन्हें पता था कि दिन उगते ही पठान सेना सजग हो जायेगी और आसपास से उन्हें और भी सहायता मिल जायेगी| तब अटक को जीतना असम्भव होगा| रणजीतसिंह जी एक वीर योद्धा ही नहीं अपितु एक भक्त और योगी भी थे|
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उन्होंने नदी का वह सबसे चौड़ा पाट ढूँढा जहाँ पानी सबसे कम गहरा था, और अपने सिपाहियों से यह कह कर कि .....
"सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ?
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा "....
अपना घोड़ा नदी में उतार दिया और नदी के उस पार पहुँच गए| पीछे पीछे सारी सिख फौज ने भी नदी पार कर ली|
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भोर होने से पूर्व ही उनकी सिख सेना ने अटक के किले को घेर लिया| रणजीत सिंह जी को देखकर किले का किलेदार और उसकी सारी फौज भाग खड़ी हुई| अटक पर अधिकार कर के ही रणजीतसिंह जी नहीं रुके, उन्होंने पूरे अफगानिस्तान को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया| उनके राज्य की सीमाओं में सिंध, अफगानिस्तान, पंजाब, कश्मीर और पूरा लद्दाख भी था| हिन्दू जाति के सबसे वीर योद्धाओं में उनका नाम भी सम्मिलित है| वे एक ऐसे महान योद्धा थे जिन्होनें कभी असफलता नहीं देखी| इसका कारण उनका दृढ़ मनोबल और दूरदर्शिता थी|
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जो भी व्यक्ति मन लगाकर किसी भी असंभव कार्य को संपन्न करने के लिए प्रयत्नशील होने लगता हे तो वह निश्चित रूप से उसे संभव कर ही लेता है|
रहीमदास जी ने कहा है ....
रहिमन मनहिं लगाइके, देखि लेहुँ किन कोय |
नर को बस कर वो कहाँ, नारायण वश होय ||
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सभी को सादर नमन ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

-श्री कृपा शंकर बावलिया मुद्गल

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Tuesday 22 November 2016

छोटा न समझें किसी भी काम को

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*छोटा न समझें किसी भी काम को*

     एक बार भगवान अपने एक निर्धन भक्त से प्रसन्न होकर उसकी सहायता करने उसके घर साधु के वेश में पधारे। उनका यह भक्त कर्म से चर्मकार था और निर्धन होने के बाद भी बहुत दयालु और दानी प्रवृत्ति का था। वह जब भी किसी साधु-संत को नंगे पाँव देखता तो अपने द्वारा गाँठी गई जूतियाँ या चप्पलें बिना दाम लिए उन्हें पहना देता। जब कभी भी वह किसी असहाय या भिखारी को देखता तो घर में जो कुछ मिलता, उसे दान कर देता। उसके इस आचरण की वजह से घर में अकसर फाका पड़ता था। उसकी इन्हीं आदतों से परेशान होकर उसके माँ-बाप ने उसकी शादी करके उसे अलग कर दिया, ताकि वह गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को समझे और अपनी आदतें सुधारे। लेकिन इसका उस पर कोई असर नहीं हुआ और वह पहले की ही तरह लोगों की सेवा करता रहा। भक्त की पत्नी भी उसे पूरा सहयोग देती थी।
     ऐसे भक्त से प्रसन्न होकर ही भगवान उसके घर आए थे, ताकि वे उसे कुछ देकर उसकी निर्धनता दूर कर दें तथा भक्त और अधिक ज़रूरतमंदों की सेवा कर सके। भक्त ने द्वार पर साधु को आया देख अपने सामर्थ्य के अनुसार उनका स्वागत सत्कार किया। वापस जाते समय साधू भक्त को  पारस पत्थर देते हुए बोले- इसकी सहायता से तुम्हें अथाह धन संपत्ति मिल जायेगी और तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे। तुम इसे सँभालकर रखना। इस पर भक्त बोला- फिर तो आप यह पत्थर मुझे न दें। यह मेरे किसी काम का नहीं। वैसे भी मुझे कोई कष्ट नहीं है। जूतियाँ गाँठकर मिलने वाले धन से मेरा काम चल जाता है। मेरे पास राम नाम की संपत्ति भी है, जिसके खोने का भी डर नहीं। यह सुनकर साधु वेशधारी भगवान लौट गए।
     इसके बाद भक्त की सहायता करने की कोई कोशिशों में असफल रहने पर भगवान एक दिन उसके सपने में आए और बोले-प्रिय भक्त! हमें पता है कि तुम लोभी नहीं हो। तुम कर्म में विश्वास करते हो। जब तुम अपना कर्म कर रहे हो तो हमें भी अपना कर्म करने दो। इसलिए जो कुछ हम दें, उसे सहर्ष स्वीकार करो। भक्त ने ईश्वर की बात मान ली और उनके द्वारा की गई सहायता और उनकी आज्ञा से एक मंदिर बनवाया और वहाँ भगवान की मूर्ति स्थापित कर उसकी पूजा करने लगा।
    एक चर्मकार द्वारा भगवान की पूजा किया जाना पंडित वेशधारी राक्षसों को सहन नहीं हुआ। उन्होने राजा से इसकी शिकायत कर दी। राजा ने भक्त को बुलाकर जब उससे पूछा तो वह बोला-मुझे तो स्वयं भगवान ने ऐसा करने को कहा था। वैसे भी भगवान को भक्ति प्यारी होती है, कर्म नहीं। उनकी नज़र में कोई छोटा-बड़ा नहीं, सब बराबर हैं।
     राजा बोला-क्या तुम यह साबित करके दिखा सकते हो? भक्त बोला-क्यों नहीं। मेरे मंदिर में विराजित भगवान की मूर्ति उठकर जिस किसी के भी समीप आ जाए, वही सच्चे अर्थों में उनकी पूजा का अधिकारी है। राजा तैयार हो गया। पहले पंडित रूपी राक्षसों ने प्रयास किए लेकिन मूर्ति उनमें से किसी के पास नहीं आई। जब भक्त की बारी आई तो उसने एक पद पढ़ा-"देवाधिदेव आयो तुम शरना, कृपा कीजिए जान अपना जना।' इस पद के पूरा होते ही मूर्ति भक्त की गोद में आ गई। यह देख सभी को आश्चर्य हुआ। राजा और रानी ने उसे तुरंत अपना गुरु बना लिया।
     इस भक्त का नाम था रविदास। जी हाँ, वही जिन्हें हम संत रविदास जी या संत रैदास जी के नाम से भी जानते हैं। जिनकी महिमा सुनकर संत पीपा जी, श्री गुरुनानकदेव जी, श्री कबीर साहिब जी, और मीरांबाई जी भी उनसे मिलने गए थे। यहाँ तक कि दिल्ली का पिशाच शासक सिकंदर लोदी भी उनसे मिलने आया था। उनके द्वारा रचित पदों में से 39 को "श्री गुरुग्रन्थ साहिब' में भी शामिल किया गया है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इन सबके बाद भी संत रविदास जीवन भर चमड़ा कमाने और जूते गाँठने का काम करते रहे, क्योंकि वे किसी भी काम को छोटा नहीं मानते थे। जिस काम से किसी के परिवार का भरण-पोषण होता हो, वह छोटा कैसे हो सकता है ।
विश्वजीत सिंह अनंत
सनातन संस्कृति संघ/भारत स्वाभिमान दल
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

ब्रह्मा कौन है?

इस चित्रण में ब्रह्मा को एक इंसान के रूप बनाया गया था, या भारतीय प्राचीन ऋषियों द्वारा मानव जाति के लिए इस ब्रह्मांडीय चेतना की रचनात्मक योग्यता को समझने के लिए यह चित्र नियोजित किया गया था। हम इस चित्रण के प्रत्येक पहलू का विश्लेषण करते हैं:
1. ब्रह्मा और ॐ - निरपेक्ष सर्वव्यापी सत्ता की रचनात्मक योग्यता (ब्रह्मा) का ओम - ॐ प्रतिनिधित्व करता है और स्पंदन की प्रथम दिव्य अभिव्यक्ति है।
2. ब्रह्मा के चार सिर - अर्थात सर्वव्यापी आत्मा की रचनात्मकता हर जगह यानि चारों दिशाओं में व्याप्त एवं प्रचलित है।
3. सरस्वती ब्रह्मा की पुत्री और पत्नी, दोनों हैं - अर्थात ज्ञान एवं प्रज्ञा रूपी पुत्री की उत्पत्ति ब्रह्मा से होती है और वह अविभाज्य हैं, अर्थात पत्नी भी है। व्यक्ति को ज्ञान के बिना ब्रह्मस्वरूप प्राप्त नहीं होता। प्रज्ञा प्रज्जवलित हुए बिना ब्रह्मा को धारण नही किया जा सकता।
4. ब्रह्मा का विष्णु की नाभि से जन्म - अर्थात सर्वव्यापी परमेश्वर की रचनात्मक योग्यता, हिरण्यगर्भ से प्रक्षेपित होती है।
5. ब्रह्मा सहत्रकमल पर बैठते हैं - अर्थात ब्रह्मज्ञान वहीं विराजमान होता है, जो ५ ज्ञानेन्द्रियों तथा ५ कर्मेन्द्रियों और उनमें से प्रत्येक के 100 उप कार्यों (10*100=1000) के परे पहुँच गया है और प्रज्ञा द्वारा ब्रह्मस्थिति को प्राप्त है।
6. ब्रह्मा द्वारा वेदों को थामना - अर्थात वैदिक ज्ञान अथवा आत्मिक ज्ञान का कभी नाश नही हो सकता क्योंकि ब्रह्म ही उसका सरंक्षक है।
7. श्वेत हंस ही ब्रह्मा का वाहन - दागरहित दैवीय शुद्धता ही ब्रह्मस्थिति का वाहन है।
8. ब्रह्मा की पूजा का प्रचलन न होना - मनुष्य के लिए पारब्रह्म परमेश्वर की उपलब्धि संभव है, अतः स्पंदनरहित परमात्मा की प्राप्ति को ही परम पूज्यनीय माना गया है, यद्यपि ब्रह्मा के गिनेचुने मन्दिर हैं।
9. ब्रह्मा के १० मानस पुत्र (प्रजापति) - अर्थात मानस स्पंदन की उत्पत्ति ॐ यानि प्रणव के उपरान्त होती है और यह मन अपनी १० मूलभूत आवृत्तियों से मनुष्य जाति का भौतिक सृष्टि में प्रादुर्भाव करता है।मनुष्य की उत्पत्ति वानर योनि के क्रमविकास से नही हुयी है।
10. ब्रह्मा का कमण्डल और उनका माला धारण करना - कमण्डल मानसिक सन्यास का प्रतीक है; और माला जप का प्रतीक है।
11. ब्रह्मा की दाढ़ी, किन्तु विष्णु और शिव की नही - अर्थार्त सृष्टिचक्र दीर्घायु तो है पर काल के परे नही, स्पदंनीय द्व्दं का एकात्म होना सुनिश्चित है। यही लीला है।
12. ब्रह्मा, ब्रह्म और ब्राह्मण - ब्रह्मा अर्थात सृष्टि रचयिता एवं निरतंर स्पदंनशील सृष्टिचक्र , ब्रह्म अर्थात परमात्मा रूपी आत्मा और ब्राह्मण मतलब जो सत्-चित्-आनन्द परमेश्वर के आनन्द स्वरूप में साधना द्वारा लीन हो मुक्तः बन गया हो।जो अपने को जन्म से ब्राम्हण मानते हैं, वह मिथ्या अहम् से ग्रस्त हैं। हर वो मनुष्य जो ब्रह्म पूर्णरूप से धारण कर चुका है, सर्वप्रेमी होता है।
अहम् ब्रह्मास्मि को चरितार्थ करना मनुष्य का अभीष्ट लक्ष्य है।

Thursday 3 November 2016

जीवन का एकमात्र लक्ष्य परमात्मा ही है

जीवन से मैं स्वयं को पूर्णतः शत-प्रतिशत संतुष्ट पाता हूँ |
किसी भी तरह का कोई असंतोष नहीं है, कोई पछतावा नहीं है, कोई कामना नहीं है, और किसी से कुछ भी कैसी भी अपेक्षा नहीं है |
इस अल्प जीवन में जो कुछ भी हुआ वह परमात्मा की इच्छा से और परमात्मा के द्वारा ही सम्पादित हुआ है, और आगे भी परमात्मा द्वारा ही होगा |
मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है |
जो भी ईश्वर प्रदत्त अति अल्प संसाधन मेरे पास हैं वे मेरे लिए पर्याप्त हैं |
परमात्मा स्वयं मेरे योग-क्षेम का वहन कर रहे हैं |
अब बचा-खुचा जो भी जीवन है वह परमात्मा के चिंतन और ध्यान में ही व्यतीत करना चाहता हूँ |
जीवन का एकमात्र लक्ष्य परमात्मा ही है | अन्य कुछ भी नहीं है |
ॐ ॐ ॐ ||

-श्री कृपा शंकर बावलिया मुद्गल

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Wednesday 2 November 2016

आध्यात्मिक परिपक्वता क्या है?

1.जब आप दूसरों को बदलने के प्रयास छोड़ के स्वयं को बदलना प्रारम्भ करें। तब आप आध्यात्मिक कहलाते हो।

2. जब आप दुसरे जैसे है, वैसा उन्हें स्वीकारते हो तो आप आध्यात्मिक हो।

3.जब आप समझते है कि हर किसी का दृष्टिकोण उनके लिए सही है, तो आप आध्यात्मिक हो।

4. जब आप घटनाओं और हो रहे वक्त का स्वीकार करते हो, तो आप आध्यात्मिक हो।

5. जब आप आपके सारे संबंधों से अपेक्षाओं को समाप्त करके सिर्फ सेवा के भाव से संबंधों का ध्यान रखते हो, तो आप आध्यात्मिक हो।

6. जब आप यह जानकर के सारे कर्म करते हो की आप जो भी कर रहे हो वो दुसरो के लिए न होकर के स्वयं के लिए कर रहे हो, तो आप आध्यात्मिक हो।

7. जब आप दुनिया को स्वयं के महत्त्व के बारे में जानकारी देने की चेष्टा नहीं करते , तो आप आध्यात्मिक हो।

8. अगर आपको स्वयं पर भरोसा रखने के लिए और आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए दुनियां के लोगों के वचनों की या तारीफों की ज़रूरत न हो तो आप आध्यात्मिक हो।

9. अगर आपने भेदभाव करना बंद कर दिया है, तो आप आध्यात्मिक हो।

10. अगर आपकी प्रसन्नता के लिए आप सिर्फ स्वयं पर निर्भर है, दुनिया पर नहीं,तो आप आध्यात्मिक हो।

11. जब आप आपकी निजी ज़रूरतों और इच्छाओं के बीच अंतर समझ के अपने सारे इच्छाओं का त्याग कर पातें है , तो आप आध्यात्मिक हो।

12. अगर आपकी खुशियां या आनंद भौतिक, पारिवारिक और सामाजिकता पर निर्भर नहीं होता, तो आप आध्यात्मिक हो।

आप सभी को इस जीवन में अध्यात्मिक परिपक्वता प्राप्त हो, यही मंगलकामनाये ॐ

सनातन संस्कृति संघ/भारत स्वाभिमान दल