Friday 9 December 2016

गीता जयंती के उपलक्ष्य में

।। ॐ ।। गीता जयंती के उपलक्ष्य में l
आज गीता जयंती है . भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह दिव्य सन्देश तब दिया था जब वह दुविद्या में था । एक ओर मोह था और दूसरी ओर युद्ध क्षेत्र में आये योद्धा का कर्तव्य । मोह ने अर्जुन को इतना निर्जीव बना दिया था कि वह अपना धुनष तक नही उठा पा रहा था , इस किंकर्तव्य की स्थिति में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का दिव्य सन्देश दिया और महाभारत का युद्ध जीत लिया गया ।
ज्ञान की इस अलौकिक धरोहर को अगर हम ने अभी तक नहीं पढ़ा और समझा तो गीता जयंती के उपलक्ष्य में गीता के 18 अध्याय आगामी 18 दिनों के पढ़ें और जाने कैसे जीवन के युद्ध क्षेत्र में जब भी कोई दुविद्या हो तब उससे अर्जुन की भांति कैसे उस पर विजय पायी जाये ।
श्री गीता जयंती पर सभी सनातन धर्मी मनुष्यों का अभिवादन एवं शुभकामनाएँ।ईश्वर करें हमारे जीवन में भी कृष्ण चेतना घट जाये और हम अपने कर्तव्य पथ पर आरूढ़ हो जाये। ॐ ॐ ॐ
सनातन संस्कृति संघ/भारत स्वाभिमान दल

Sunday 4 December 2016

ब्रह्मचर्य - वीर्य रक्षण - योग-साधना"।

ब्रह्मचर्य  - वीर्य रक्षण  - योग-साधना"।

1. वीर्य  के  बारें  में  जानकारी  -

आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के शरीर में सात धातु होते हैं- जिनमें अन्तिम धातु वीर्य (शुक्र) है। वीर्य ही मानव शरीर का सारतत्व है।
40 बूंद रक्त से 1 बूंद वीर्य होता है।
एक बार के वीर्य स्खलन से लगभग 15 ग्राम वीर्य का नाश होता है । जिस प्रकार पूरे गन्ने में शर्करा व्याप्त रहता है उसी प्रकार वीर्य पूरे शरीर में सूक्ष्म रूप से व्याप्त रहता है।

सर्व अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म तीनों से मैथुन का सदैव त्याग हो, उसे ब्रह्मचर्य कहते है ।।
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2. वीर्य  को पानी  की  तरह   रोज बहा देने से नुकसान   -

शरीर के अन्दर विद्यमान ‘वीर्य’ ही जीवन शक्ति का भण्डार है।
शारीरिक एवं मानसिक दुराचर तथा प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक मैथुन से इसका क्षरण होता है। कामुक चिंतन से भी इसका नुकसान होता है।

मैथून के द्वारा पूरे शरीर में मंथन चलता है और शरीर का सार तत्व कुछ ही समय में बाहर आ जाता है।
रस निकाल लेने पर जैसे गन्ना छूंट हो जाता है कुछ वैसे ही स्थित वीर्यहीन मनुष्य की हो जाती है।  ऐसे मनुष्य की तुलना मणिहीन नाग से भी की जा सकती है। खोखला होता जाता  है  इन्सान ।

स्वामी शिवानंद जी ने मैथुन के  प्रकार बताए हैं जिनसे बचना ही ब्रह्मचर्य है -
1. स्त्रियों को कामुक भाव से देखना।
२.  सविलास की क्रीड़ा करना।
3. स्त्री के रुप यौवन की प्रशंसा करना।
4. तुष्टिकरण की कामना से स्त्री के निकट जाना।
5. क्रिया निवृत्ति अर्थात् वास्तविक रति क्रिया।

    इसके अतिरिक्त विकृत यौनाचार से भी वीर्य की भारी क्षति हो जाती है। हस्तक्रिया  आदि इसमें शामिल है।
शरीर में व्याप्त वीर्य कामुक विचारों के चलते अपना स्थान छोडऩे लगते हैं और अन्तत: स्वप्रदोष आदि के द्वारा बाहर आ जाता है।
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य वीर्य रक्षा से है। यह ध्यान रखने की बात है कि ब्रह्मचर्य शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार से होना जरूरी है। अविवाहित रहना मात्र ब्रह्मचर्य नहीं कहलाता।
    धर्म कर्तव्य के रूप में सन्तानोत्पत्ति और बात है और कामुकता के फेर में पडक़र अंधाधुंध वीर्य नाश करना बिलकुल भिन्न है।

मैथुन क्रिया से होने वाले नुकसान निम्रानुसार है-
* शरीर की जीवनी शक्ति घट जाती है, जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।
* आँखो की रोशनी कम हो जाती है।
* शारीरिक एवं मानसिक बल कमजोर हो जाता है।
* जिस तरह जीने के लिये ऑक्सीजन चाहिए वैसे ही ‘निरोग’ रहने के लिये ‘वीर्य’।
* ऑक्सीजन प्राणवायु है तो वीर्य जीवनी शक्ति है।
* अधिक मैथुन से स्मरण शक्ति कमजोर हो जाता  है।
* चिंतन विकृत हो जाता है।

वीर्यक्षय से विशेषकर तरूणावस्था में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं - 

  चेहरे पर मुँहासे , नेत्रों के चतुर्दिक नीली रेखाएँ, दाढ़ी का अभाव, धँसे हुए नेत्र, रक्तक्षीणता से पीला चेहरा, स्मृतिनाश, दृष्टि की क्षीणता, मूत्र के साथ वीर्यस्खलन, दुर्बलता,  आलस्य, उदासी, हृदय-कम्प, शिरोवेदना, संधि-पीड़ा, दुर्बल वृक्क, निद्रा में मूत्र निकल जाना, मानसिक अस्थिरता, विचारशक्ति का अभाव, दुःस्वप्न, स्वप्नदोष व मानसिक अशांति।

अगर ग्रुप  में  किसी  भाई  को ये समस्याएँ हैं  तो उपाय भी  लिख रहा हूँ  -

लेटकर श्वास बाहर निकालें और अश्विनी मुद्रा अर्थात् 30-35 बार गुदाद्वार का आकुंचन-प्रसरण श्वास रोककर करें।
ऐसे एक बार में 30-35 बार संकोचन विस्तरण करें। तीन चार बार श्वास रोकने में 100 से 120 बार हो जायेगा।
यह ब्रह्मचर्य की रक्षा में खूब मदद करेगी। इससे व्यक्तित्व का विकास होगा ही,  व ये  रोग भी दूर होंगे समय के साथ ।।
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3. वीर्य  रक्षण  से  लाभ -

शरीर में वीर्य संरक्षित होने पर आँखों में तेज, वाणी में प्रभाव,  कार्य में उत्साह एवं प्राण ऊर्जा में अभिवृद्धि होती है।
ऐसे  व्यक्ति  को जल्दी  से कोई  रोग नहीं  होता है  उसमें  रोग प्रतिरोधक क्षमता आ जाती है  ।

पहले के जमाने में हमारे गुरुकुल शिक्षा पद्धति में ब्रह्मचर्य अनिवार्य हुआ करता था। और  उस वक्त में  यहाँ वीर योद्धा, ज्ञानी, तपस्वी व ऋषि स्तर के लोग हुए|

ऋषि दयानंद ने कहा ब्रह्मचर्य ब्रत का पालन करने बाले ब्यक्ति का अपरिमित शक्ति,  प्राप्त होता है एक ब्रह्मचारी संसार का जितना उपकार कर सकता है दूसरा कोई नही कर सकता.

भगवान बुद्ध  ने कहा है -  ‘‘भोग और रोग साथी है और ब्रह्मचर्य आरोग्य का मूल है।’’

स्वामी रामतीर्थ  ने कहा है - ‘‘जैसे दीपक का तेल-बत्ती के द्वारा ऊपर चढक़र प्रकाश  के रूप में परिणित होता है, वैसे ही ब्रह्मचारी के अन्दर का वीर्य सुषुम्रा नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान-दीप्ति में परिणित हो जाता है।

पति के वियोग में कामिनी तड़पती है और वीर्यपतन होने पर योगी पश्चाताप करता है।

भगवान शंकर ने  कहा  है-
'इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही मेरी ऐसी महान महिमा हुई है।'

कुछ  उपाय  -

ब्रह्मचर्य जीवन जीने के लिये सबसे पहले ‘मन’ का साधने की आवश्यकता है।
भोजन पवित्र एवं सादा होना चाहिए, सात्विक होना चाहिए।
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1.   प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाएँ।
2.    तेज मिर्च मसालों से बचें। शुद्ध सात्विक शाकाहारी भोजन करें।
3.    सभी नशीले पदार्थों से बचें।
4.    गायत्री मन्त्र या अपने ईष्ट मन्त्र का जप व लेखन करें।
5.    नित्य ध्यान (मेडिटेशन) का अभ्यास करें।
6.    मन को खाली न छोड़ें किसी रचनात्मक कार्य व लक्ष्य से जोड़ रखें।
7.    नित्य योगाभ्यास करें। निम्न आसन व प्राणायाम अनिवार्यत: करें-
आसन-पश्चिमोत्तासन, सर्वांगासन, भद्रासन प्राणायाम- भस्त्रिका, कपालभाति, अनुलोम विलोम।

जो हम खाना खाते हैं उससे वीर्य बनने की काफी लम्बी प्रक्रिया है।खाना खाने के बाद रस बनता है जो कि नाडियों में चलता है।फिर बाद में खून बनता है।इस प्रकार से यह क्रम चलता है और अंत में वीर्य बनता है।
वीर्य में अनेक गुण होतें हैं।
क्या आपने कभी यह सोचा है कि शेर इतना ताकतवर क्यों होता है?वह अपने जीवन में केवल एक बार बच्चॉ के लिये मैथुन करता है।जिस वजह से उसमें वीर्य बचा रहता है और वह इतना ताकतवर होता है।
जो वीर्य इक्कठा होता है वह जरूरी नहीं है कि धारण क्षमता कम होने से वीर्य बाहर आ जायेगा।वीर्य जहाँ इक्कठा होता है वहाँ से वह नब्बे दिनों बाद पूरे शरीर में चला जाता है।
फिर उससे जो सुंदरता,शक्ति,रोग प्रतिरोधक क्षमता आदि बढती हैं उसका कोई पारावार नहीं होता है।
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4.  पत्नी  का त्याग  नहीं  करना है -

ब्रह्मचर्य में स्त्री और पुरुष का कोई लेना देना ही नहीं है।
प्राचीन काल में ऋषि मुनि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे, ऋषि पत्नियां भी बहुत जागृत और ग्यानी होती थी। आत्मसाक्षात्कार का जितना अधिकार पुरुषो को था उतना ही स्त्रियों को भी था।
ब्रह्मचर्य को पूर्ण गरिमा प्राचीन काल में ही मिली थी। मैंने एक कथा सुनी थी, एक ऋषि ने अपने पुत्र को दुसरे ऋषि के पास सन्देश लेकर भेजा था, पुत्र ने पिता से कहा की राह में एक नदी पड़ती है, कैसे पार करूँगा।
ऋषि ने कहा जाकर नदी से कहना,अगर मेरे पिता ने एक पल भी ब्रह्मचर्य का व्रत ना त्यागा हो, स्वप्न में भी नहीं, तो हे नदी तू मुझे रास्ता दे दे।
कथा कहती है की नदी ने रास्ता दे दिया। कैसा विरोधाभास है, एक पुत्र का पिता और ब्रह्मचारी , कैसे ?
जाहिर  है  कि संभोग एक बार  सन्तानोपत्ति  के  लिए  किया गया था , आनंद के लिए  नहीं  ।
बुद्ध और महावीर के बाद हज़ारों युवक अपनी पत्नियों को घर को छोड़ कर भिक्षु बन गए , तब ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ स्त्री निषेध बन गया।

नर और नारी के घनिष्ठ सहयोग के बिना सृष्टि का व्यवस्थाक्रम नहीं चल सकता।
दोनों का मिलन कामतृप्ति एवं प्रजनन जैसे पशु प्रयोजन के लिए नहीं होता, वरन घर बसाने से लेकर व्यक्तियों के विकास और सामाजिक प्रगति तक समस्त सत्प्रवित्तियों का ढांचा दोनों के सहयोग से ही सम्भव होता है।

अध्यात्म के मंच से एक और बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष दुर्गुणों की, पाप-पतन की जड़ है।
इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
इस सनक में लोग घर छोडक़र भागने में, स्त्री बच्चे को बिलखता छोडक़र भीख माँगने और दर-दर भटकने के लिए निकल पड़े।

तंत्र के पथिको ने आज्ञा चक्र में अर्ध नारीश्वर की कल्पना की है, यह कल्पना नहीं यथार्थ है, विज्ञान भी स्वीकारता है, की, हर स्त्री में एक पुरुष विद्यमान है और हर पुरुष में एक स्त्री।

जब साधक या साधिका की चेतना आज्ञा चक्र में प्रवेश करती है, जब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र का भेदन करती है तो काम ऊर्जा राम ऊर्जा में रूपांतरित हो जाती है, साधक जीव संज्ञा से शिव संज्ञा में प्रविष्ट हो जाता है।
आज्ञा चक्र में पुरुष साधक को अपने भीतर की स्त्री का दर्शन होता है और स्त्री साधक को अपने भीतर के पुरुष का, जैसे ही यह दर्शन मिलता है, वैसे ही बाहर की स्त्री या पुरुष विलीन हो जाता है, खो जाता है।
बाहर की स्त्री या पुरुष में रस ख़त्म हो जाता है, आप अपने भीतर के पुरुष या स्त्री को पा लेते हैं, और साथ ही आप आतंरिक या आध्यात्मिक सम्भोग के रहस्य को जान लेते हैं, जो पंचमकार का एक सूक्ष्म मकार है।
यह बिलकुल उसी तरह होता है , जैसे खेचरी मुद्रा में साधक ललना चक्र से टपकने वाली मदिरा का पान करके आनंद में रहता है। जैसे ही आपको भीतर का सौंदर्य मिलता है, बाहर का सौंदर्य खो जाता है ।
संसार की स्त्री या पुरुष में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है, कोई रस नहीं रह जाता है, यही वो घडी है, जब ब्रह्मचर्य आपके भीतर से प्रस्फूटित होता है. अब आप वो नहीं रहे आप रूपांतरित हो जाते हैं, यही वो जगह है जहाँ शिवत्व घटता है । 

5.  कमेन्टस  में   चर्चा   -

एक बात  ध्यान  रखना है  चर्चा  में  कि यहाँ  माता-बहने  भी  हैं  तो शब्दों  का ख्याल  रखना है  ,  कामुक या गंदे  शब्दों  से परहेज  करना है  जहां  तक हो सके ।

शादीशुदा व्यक्ति पूर्ण  ब्रह्मचर्य  ना रख सकें  तो भी  संयमित  जीवन  अवश्य  व्यतीत  करना चाहिए  ।

अगर कोई  कहता है  कि  यौन इच्छाओं  को दबाने  से नपुंसकता  आ जाएगी  या  दबाने  से अच्छा  है  भोग लो ,  तो  भाई  ऐसा  है  कि उपर  लिखी  दिनचर्या  अपनाओगे तो यौन इच्छाएँ  पैदा  ही  नहीं  होगी  ,
मन निर्मल  तो तन निर्मल  ।।

अगर  कोई  कहे  कि  संभोग    8-10  दिन  इतना ज्यादा  करो  कि घृणा  हो जाए , तो भाई  ऐसा  है  कि  नसें उभर आएंगी  , पीड़ा  भी  महसूस  करोगे , संभोग  से  मन उचट भी  जाएगा ,  परन्तु  .....
महिने 2-3   में  वीर्य  बनने पर ,  कामुक  साहित्य  , नेट पर अशलील चीजें  देखने पर , नारी  को गलत भावना  से देखने पर फिर  से काम वेग उठेगा , तुम फिर  बह जाओगे।

इसलिए  ये  सोचना  बिल्कुल  गलत होगा कि  8-10  दिन  जमकर करो तो घृणा  हो जाएगी  सदा के लिए । ।

साधना पर भी  प्रभाव  पडेगा  ,  जो व्यक्ति  कामुक है  ,  उसके  विचार  भी  वैसे  चलेंगे  ,  ज्यादा  वीर्य  नष्ट  करने  से  शरीर  में  शक्ति  का संचार कम होगा ,  वह  1 घण्टे  तक  ज्ञान मुद्रा  में  ही  नहीं  बैठ पाएगा  ।

Wednesday 30 November 2016

प्रभु जिसको चाहते है उसके लौकिक सुख हर लेते हैं

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🗝    लौकिक(भौतिक) सुखो की प्राप्ति का प्रयत्न न हो पाये तो मान लो कि ठाकुर जी ने कृपा की है। परमेश्वर जिस किसी जीव पर अधिक कृपा करते हैं उसे लौकिक सुख अधिक नही देते।

🗝       लौकिक(भौतिक) सुख मिलने पर जीव ईश्वर से विमुख हो जाता है। प्रभु का नाम स्मरण लौकिक सुखो की प्राप्ति के लिये कभी मत करो। लौकिक सुख में विघ्न उपस्थित होने पर समझ लो कि प्रभु मुझे अलौकिक सुख देने जा रहे हैं।

🗝     जिस जीव पर प्रभु की विशेष कृपा होती है उसका लौकिक(भौतिक) सुख प्राप्ति का प्रयत्न भगवान सफल नहीं होने देते। जिस जीव पर वे साधारण कृपा करते हैं उसे सुख देते हैं । हरेकृष्ण 🙏🌺

सनातन संस्कृति संघ/भारत स्वाभिमान दल

​क्या ईश्वर सिर्फ कल्पना हैं ? 

​क्या ईश्वर सिर्फ कल्पना है ? 

पहले हमें समझना होगा , ईश्वर क्या है? कैसा है  ? यथार्थ में ईश्वर एक शक्ति हैं, pure life energy हैं, pure living energy है जिसे हम consciousness कहते हैं science की भाषा में, और वेदांत की भाषा नें उसको ब्रह्म कहते हैं।

ईश्वर एक infinite , अनंत consiousness energy का फील्ड है, जैसे की मॅग्नेटिक field होता है । ईश्वर एक शक्ति हैं, energy हैं, जिस energy से सारा अपने आप कार्य कारण भाव से , cause - effect से विश्व भासीत होता है, उस original life energy को ईश्वर, परमात्मा, देव, भगवान कहा गया है यह बात साफ साफ समझनी चाहिए।

एक infinite original living energy field के gradual consolidification के कारण प्रकृति का , पंचभूतों का, matter का, पदार्थ का निर्माण होना भासीत होता है , जैसे आकाश में वायु होती है , वायु में वाष्प होता है, वाष्प सघन हो जाय तो बादल बनते है, बादल थंडा हो जाये तो जल बन जाता है, जल अधिक ठंडा हो जाये तो बर्फ बन जाता है ठीक इसी तरह उस

Consciousness के सघन होनेसे

Gradually पंचभूत बनते है , universal consciousness से आकाश बनता है, आकाश से वायु बनती है, वायु से अग्नि बनती है, जल बनता है, लावा बनता है, लावा ठंडा होने से फिर पृथ्वी तत्व बनता है,

वाष्प से बर्फ बनने जैसी यह self sustaining self maintaining घटना है , कार्य कारण भाव है, यहां न कोई मनुष्य स्वरूप व्यक्ति स्वरूप ईश्वर है, न कोई नियंत्रक है, न कोई controller है, जो भी है वह सिर्फ और सिर्फ universal consciousness है, जो मन का सूक्ष्मतम स्वरूप है। जिसे कोई दुर्लभ ही जानता है , अनुभव करता है, जो स्वयं ही universal हो जाता है, अनंत हो जाता है । चिरंतन हो जाता है ।...

जो लोग ईश्वर को परंपरा से मानते है वे ईश्वर का खोज नहीं करते ,बस मानते है बिना जाने और जो ईश्वर को नकारते है वे भी बिना जाने ही नकारते है, ये दोनों तरह के लोगो को ईश्वर कभी समझ में आता ही नहीं है, वे अपनी अपनी मान्यता में, सम्मोहन में, परंपरा में, अंधश्रद्धा में, अंध विश्वास में अटके हुये कुपमण्डूक लोग है ।

धर्म के आधारभूत मूल ग्रंथों का सही आकलन हो जाय तो समझ में आता है की सभी एकही मिलती जुलती बात कह रहे है , गलती तो समझने वालो की होती है जो 

मान्यता के कारण कुछ का कुछ समझ बैठते है जो एक सम्मोहन है।
सबका कहना एक है , सब उस शक्तिको निर्गुण ,निराकार कहते है ,उसका कोई जन्म नहीं, कोई मृत्यु नहीं, उसकी कोई माँ नहीं, उसका कोई पिता नहीं, वह न पैदा होता है न मरता है। सामान्य बुद्धि में यह बात पकड में नहीं आती , यह तो अनुभव की बात है , सूनने से, पढ लेने से, मानने से, विश्वास से वह शक्ति समझ में नहीं आती, उसके लिये आत्मज्ञानी महापुरूष से भेट आवश्यक है जो वास्तविक तत्व को समझा सकता है, जो व्यक्ति उस तत्व से एकरूपता अनुभव कर चुका है वही सही मार्गदर्शन कर सकता है, आज विश्व भर में फैले कथाकथित लाखों गुरूओं में से कोई दो- चार ही आत्मज्ञानी गुरू होगे, वाचाल तो बहुत होगे, चमत्कारी बहुत होगे, पर सच्चे आत्मज्ञानी महापुरूष दो- चार ही मिलेगे। भारत वर्ष में ऐसे व्यक्ति को संत, मुनि, ज्ञानी, सद्गुरू कहा जाता हैं।

इनमे कोई मतभेद नहीं है, मतभेद तो हमारे मान्यताओं में है , जो एक तरह की अंधता है दुसरा कुछ नहीं।

सृष्टी एक cause -effect है , जो एक mind - matter phenomenon है, जिसे कृष्ण परमात्मा कहते है , सारा विश्व एक ही वस्तु से बना है जिसे ईश्वर कहा गया है , इसलिये कहा जाता है की कण कण में ईश्वर है, कण कण में ब्रह्म हैं।

ईश्वर को मनुष्य रूप में मानने से संप्रदाय निर्मित हुये है, जो एक दुसरे से झगडते रहते है अज्ञान के कारण, अन्यथा झगडा होने का कोई कारण नहीं है, राजनीति करने वाले, कराने वाले लोग जो कुछ नहीं जानते, जिन्हें सिर्फ सत्ता चाहिये वे ही यहां दंगे फसाद करवाते है, युद्ध, आतंकवाद, नपुंसकता फैलाते है, उनसे सबको दूर रहना चाहिये ।

ईश्वर एक है , एक ओंकार सतनाम , एकं ब्रह्मं , एकोदेव महेश्वर,

पुराने ज्ञानी यह जानते थे इसलिये 6

वैदिक दर्शनों के साथ 6 अवैदिक दर्शन भी दर्शन शास्त्र कि शोभा बढ़ाते है, इतना ही नही सांख्य और वेदांत जैसे वैदिक दर्शन भी ईश्वर को मनुष्य स्वरूप, व्यक्ति स्वरूप नही मानते ।
💐🙏सनातन संस्कृति संघ🙏💐

Sunday 27 November 2016

वेदों में परिवर्तन नही हो सकता है

वेदों में परिवर्तन नही हो सकता है |(वेद की आंतरिक साक्षी के आधार पर )
वेदों में परिवर्तन या क्षेपक नही हो सकता है इसकी आंतरिक
साक्षी स्वयम वेद देता है -
" ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिदेवा अधि विश्वे निषेदू: |
यस्तन्न वेद किमचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ||
- ऋग्वेद १/१६४/३९
अर्थ - ऋचाये (वेद मन्त्र ) अविनाशी ओम में स्थित है | जिस में सारे देव स्थित हुए है | जो उस अविनाशी को नही जानता वह ऋचाओं से क्या करेगा | जो ही उसे जानते है वे ही अमृत में स्थित है |
इस मन्त्र की व्याख्या निरुक्त में यास्क ऋषि शाकपुर्णी ऋषि और कौषतिकी ब्राह्मण के प्रमाण से करते है -
" ऋचो अक्षरे परमे व्यवने यस्मिन्देवा अधिनिन्णा: सर्वे| यस्तन्न वेद कि स ऋचा करिष्यति | य इत्तद्विदुस्त इमे समासते इति विदुष उपदिशति | कतमत्तदेतदत्तक्षरम | ओमित्येषा वागिति शाकपुणि: |
ऋचश्च अक्षरे परमे व्यवने धीयन्ते | नानादेवतेषु च मन्त्रेषु |
अर्थ - ऋचाये परम अक्षर में विशेष रक्षित है |
यहा अक्षर क्या है ?
इसी पर १३/१२ में यास्क लिखते है - अक्षर न क्षरति | न क्षीयते वा | अर्थात जो क्षीण नही होता और नष्ट नही होता |
इससे ईश्वर,जीव और प्रक्रति तीनो अक्षर हुए |
ईश्वर और जीव के अक्षर होने की पुष्टि भगवतगीता भी करती है -
द्वाविमौ पुरुषो लोके क्षरश्चाक्षर एव च |
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोSक्षर उच्यते ||
उत्तम पुरुषस्तवन्य: परमात्मत्युदाहृत: |
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: || (गीता १५ /१६-१७ )
अर्थात जगत में दो पदार्थ है क्षर और अक्षर | कार्य जगत क्षर है और ह्रदय गुहा में रहने वाला जीव अक्षर है और उससे भी उत्तम तीनो लोको को धारण करने वाला ईश्वर परम पुरुष अक्षर है |
अक्षर ब्रह्म परम स्वभावोSध्यात्ममुच्यते (गीता ८/३ )
परम पुरुष ईश्वर अक्षर है उसके परम स्वभाव को अध्यात्म कहते है |
इनसे स्पष्ट है कि अक्षर जीव ,ईश्वर और प्रक्रति के लिए प्रयुक्त हो सकता है |
यास्क ने यहा परम अक्षर लिखा है परम शब्द से इस मन्त्र में ईश्वर का ग्रहण होगा | अर्थात ऋचाये परम अक्षर ईश्वर में विशेष रूप से रक्षित है | जिस में सारे देव स्थित है | जो उसे नही जानता वो ऋक का क्या करेगा | जो उसे जानते है वो विद्वानों के प्रति उपदेश करता है कि वह अक्षर कौनसा है ? ओम ही वह अक्षर है यह शाकपुणि कहते है |
छान्दोग्योपनिषद् और अन्य उपनिषद में ओम को ईश्वर का नाम कहा है | इसे प्रणव और उद्गीत भी कहते है | योगदर्शन कार पतंजली मुनि कहते है -तस्य वाचक प्रणव: अर्थात ईश्वर का वाचक प्रणव ओम है | इसी को शाकपुणि ऋषि परम अक्षर कहते है |मह्रिषी दयानंद सरस्वती जी ओम को ईश्वर का निज नाम कहते है |
वे सत्यार्थ प्रकाश प्रथमसमुल्लास में लिखते है -
" ओ खम्ब्रह्म (यजु. ४०/१७ )
ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत -छान्दोग्योपनिषद्
- आकाशवत व्यापक होने से सबसे बड़ा होने से ईश्वर ओम का नाम ब्रह्म है |
-ओम जिसका नाम और जो कभी नष्ट नही होता ,उसी की उपासना करना योग्य है अन्य की नही |
इस तरह ओम ईश्वर का वाचक है |
शाकपुणि आगे कहते है - ऋचाये निश्चय ही उस अविनाशी परम अक्षर में स्थित है |
नाना देवताओं वाले मन्त्रो में यह अक्षर है | इससे सारी त्रिविद्या है यह ब्राह्मण कौषतिकी ब्राह्मण में कहा गया है |
यास्क ऋषि ने शाकपुणि और ब्राह्मण ग्रन्थ के प्रमाण से बताया कि ऋचाये परम अक्षर में सुरक्षित है | मैंने परम अक्षर और ओम को ईश्वर के लिए सिद्ध किया | इससे स्पष्ट होता है कि सभी वैदिक ऋचाये ईश्वर में सुरक्षित है | वेद ईश्वर का ज्ञान है अर्थात यह नित्य है क्यूंकि ईश्वर के नित्य होने से उसका ज्ञान भी नित्य ही होगा | ईश्वर में कोई परिवर्तन नही होता है इससे उसके ज्ञान उसके नियमो जों मानव के लिए ४ ऋषियों पर ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद और अर्थववेद नाम से प्रकाशित हुआ में भी कोई परिवर्तन नही हो सकता है | स्वयम मन्त्र इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि ऋचाये परम अक्षर में रक्षित है |अत: वेद कभी भी किसी भी उपाय से नष्ट नही हो सकते है क्यूंकि वे सर्वव्यापक ,सर्वज्ञानी ओम में स्थित है |

Thursday 24 November 2016

सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ?

सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ?
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ....
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महाराजा रणजीतसिंह जी ने जब अटक के किले पर आक्रमण किया था तब उस समय मार्ग की एक बरसाती नदी में बाढ़ आई हुई थी| किले का किलेदार और सभी पठान सिपाही निश्चिन्त होकर सो रहे थे कि रात के अँधेरे में रणजीतसिंह की फौज नदी को पार नहीं कर पायेगी| अगले दिन किले के पठानों को आसपास से और भी सहायता मिलने वाली थी|
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आधी रात का समय था और रणजीतसिंह जी के सामने नदी पार करने के अतिरिक्तं कोई अन्य विकल्प नहीं था| उन्हें पता था कि दिन उगते ही पठान सेना सजग हो जायेगी और आसपास से उन्हें और भी सहायता मिल जायेगी| तब अटक को जीतना असम्भव होगा| रणजीतसिंह जी एक वीर योद्धा ही नहीं अपितु एक भक्त और योगी भी थे|
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उन्होंने नदी का वह सबसे चौड़ा पाट ढूँढा जहाँ पानी सबसे कम गहरा था, और अपने सिपाहियों से यह कह कर कि .....
"सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ?
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा "....
अपना घोड़ा नदी में उतार दिया और नदी के उस पार पहुँच गए| पीछे पीछे सारी सिख फौज ने भी नदी पार कर ली|
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भोर होने से पूर्व ही उनकी सिख सेना ने अटक के किले को घेर लिया| रणजीत सिंह जी को देखकर किले का किलेदार और उसकी सारी फौज भाग खड़ी हुई| अटक पर अधिकार कर के ही रणजीतसिंह जी नहीं रुके, उन्होंने पूरे अफगानिस्तान को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया| उनके राज्य की सीमाओं में सिंध, अफगानिस्तान, पंजाब, कश्मीर और पूरा लद्दाख भी था| हिन्दू जाति के सबसे वीर योद्धाओं में उनका नाम भी सम्मिलित है| वे एक ऐसे महान योद्धा थे जिन्होनें कभी असफलता नहीं देखी| इसका कारण उनका दृढ़ मनोबल और दूरदर्शिता थी|
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जो भी व्यक्ति मन लगाकर किसी भी असंभव कार्य को संपन्न करने के लिए प्रयत्नशील होने लगता हे तो वह निश्चित रूप से उसे संभव कर ही लेता है|
रहीमदास जी ने कहा है ....
रहिमन मनहिं लगाइके, देखि लेहुँ किन कोय |
नर को बस कर वो कहाँ, नारायण वश होय ||
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सभी को सादर नमन ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

-श्री कृपा शंकर बावलिया मुद्गल

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जयतु भारतम्
जयतु संस्कृतम्