Wednesday 28 September 2016

सनातन धर्म

*सनातन धर्म*....

                 दुनिया के सभी धर्म किसी न किसी व्यक्ति की विचारधारा से उद्भूत हुए हैं। इस्लाम, क्रिश्चियनिटी, बुद्धिज्म, जैनिज्म, जरथुस्त्रियन, पारसीक आदि धर्मों की मान्यताएं मूलतः किसी न किसी पैगंबर या ईश्वरीय दूतों के संदेशों पर निर्भर करती हैं। अकाट्य रूप से उनसे जुड़े सिद्धांत उस दूत विशेष की क्रियाविधि से प्रभावित होते हैं, उनकी जीवनशैली ही इनके लिए आधारबिंदु का कार्य करती है।

किंतु यही बात सनातन परंपरा पर बिल्कुल भी लागू नहीं होती। ये एक प्रवाहमय विचारधारा, सरल जीवन पद्धति, नैरंतर्य की सरिता के समान विशाल और गहरी है। न आदि न अंत, अविनाशी,उस सर्वशक्तिमान के समान अजेय और निरंतर है…….

*सनातन धर्म का अर्थ व महत्व :*

सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।

वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है। मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं जिनका शाश्वत महत्व है।

*हिंदुत्व का महत्व:*

हिन्दू एक अप्रभंश शब्द है। हिंदुत्व या हिंदू धर्म को प्राचीनकाल में सनातन धर्म कहा जाता था। एक हजार वर्ष पूर्व हिंदू शब्द का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिंधु का उल्लेख मिलता है। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख और पाक से बहती है। भाषाविदों का मानना है कि हिंद-आर्य भाषाओं की ‘स’ ध्वनि ईरानी भाषाओं की ‘ह’ ध्वनि में बदल जाती है। आज भी भारत के कई इलाकों में ‘स’ को ‘ह’ उच्चारित किया जाता है।
इसलिए सप्त सिंधु अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर हप्त हिंदू में परिवर्तित हो गया। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया। किंतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों को आज भी सिंधू या सिंधी कहा जाता है।
ईरानी अर्थात पारस्य देश के पारसियों की धर्म पुस्तक ‘अवेस्ता’ में ‘हिन्दू’ और ‘आर्य’ शब्द का उल्लेख मिलता है। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मानना है कि चीनी यात्री हुएनसांग के समय में हिंदू शब्द की उत्पत्ति ‍इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के लोग भारतीयों को ‘इन्तु’ या ‘हिंदू’ कहने लगे।

*सनातन मार्ग :*

विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर ‘मोक्ष’ की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था। मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिए ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।

*आर्यत्व :*

आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का नाम न होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य का अर्थ चार श्रेष्ठ सत्य ही होता है। बुद्ध कहते हैं कि उक्त श्रेष्ठ व शाश्वत सत्य को जानकर आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करना ही ‘एस धम्मो सनंतनो’ अर्थात यही है सनातन धर्म।
इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था।

*मोक्ष का मार्ग :*

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है। यम, नियम, अभ्यास और जागरण से ही मोक्ष मार्ग पुष्ट होता है। जन्म और मृत्यु मिथ्‍या है। जगत भ्रमपूर्ण है। ब्रह्म और मोक्ष ही सत्य है। मोक्ष से ही ब्रह्म हुआ जा सकता है। इसके अलावा स्वयं के अस्तित्व को कायम करने का कोई उपाय नहीं। ब्रह्म के प्रति ही समर्पित रहने वाले को ब्राह्मण और ब्रह्म को जानने वाले को ब्रह्मर्षि और ब्रह्म को जानकर ब्रह्ममय हो जाने वाले को ही ब्रह्मलीन कहते हैं।

*विरोधाभासी नहीं है सनातन धर्म :*

सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले अलग-अलग काल में अनेक ऋषि हुए हैं। उक्त ऋषियों को दृष्टा कहा जाता है। अर्थात जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा। इसीलिए सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है। जो उक्त ऋषियों की बातों को नहीं समझ पाते वही उसमें भेद करते हैं। भेद भाषाओं में होता है, अनुवादकों में होता है, संस्कृतियों में होता है, परम्पराओं में होता है, सिद्धांतों में होता है, लेकिन सत्य में नहीं।

वेद कहते हैं ईश्वर अजन्मा है। उसे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं, उसने कभी जन्म नहीं लिया और वह कभी जन्म नहीं लेगा। ईश्वर तो एक ही है लेकिन देवी-देवता या भगवान अनेक हैं। उस एक को छोड़कर उक्त अनेक के आधार पर नियम, पूजा, तीर्थ आदि कर्मकांड को सनातन धर्म का अंग नहीं माना जाता। यही सनातन सत्य है।

*सनातन धर्म को फिर एक बार जानने की जरूरत क्यों पड़ी?*

भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई १००० वर्ष पूर्व ही मिलता है, उसके पहले नहीं। हिन्दुत्व सनातन धर्म के रूप में सभी धर्मों का मूलाधार है क्योंकि सभी धर्म-सिद्धान्तों के सार्वभौम आध्यात्मिक सत्य के विभिन्न पहलुओं का इसमें पहले से ही समावेश कर लिया गया था।

सनातन धर्म जिसे हिन्दू धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहा जाता है, का १९६०८५३११० साल का इतिहास हैं। भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिह्न मिलते हैं।इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख है!

१९६०८५३११० साल पुराना इतिहास होने के बावजूद आज सनातन धर्म चौतरफा हमले झेल रहा है फिर भी सदृढ़ खड़ा है
हमे गर्व होना चाहिए अपने सनातन धर्म पे उसके इतिहास पे ,सिद्धांतो पे और यथासंभव प्रयास करना चाहिए उसके प्रचार एवं प्रसार का जिससे पूरी दुनिया मे शांति का वातावरण बना रहे…….

          🌿जय श्री कृष्ण🌿

अहंकार, चिंता और व्यर्थ का चिंतन हटाने के लिए मंत्र

अहंकार, चिंता और व्यर्थ का चिंतन साधक की शक्ति को निगल जाते हैं | इनको मिटाने के लिए एक सुंदर मंत्र योगी गोरखनाथजी ने बताया है | इसमें कोई विधि – विधान नहीं है | रात को सोते समय इस मंत्र का जप करो, संख्या का कोई आग्रह नहीं है | इस मंत्र से आपके चित्त की चिंता, तनाव, खिंचाव, दिक्कतें जल्दी शांत हो जायेगी और साधन – भजन में बरकत आयेगी | मंत्र उच्चारण में थोडा कठिन जैसा लगेगा लेकिन याद रह जाने पर आसान हो जायेगा | बाहर के रोग तो बाहर की औषधि से मिट सकते हैं लेकिन भीतर के रोग बाहर की औषधि से नहीं मिटेंगे और इस मंत्र से टिकेंगे नहीं |

हमारी जो जीवनधारा है, जीवनीशक्ति है, चित्तशक्ति है उसीको उद्देश्य करके यह मंत्र है :

ॐ चित्तात्मिकां महाचित्तिं
चित्तस्वरूपिणीं आराधयामि
चित्तजान रोगान शमय शमय
ठं ठं ठं स्वाहा  ठं ठं ठं स्वाहा |

‘हे चित्तात्मिका, महाचित्ति, चित्तस्वरूपिणी ! मैं तेरी आराधना करता हूँ | जगत – शक्तिदात्री भगवती ! मेरे चित्त के रोगों का तू शमन कर |’

‘ठं’ बीजमंत्र है, यह बड़ा प्रभाव करता है | किसीमें लोभ, किसीमें मोह, किसीमें शराब पीने का, किसीमें अहंकार का, किसीमें शेखी बधारने का दोष होता है | चित्त में दोष भरे है इसलिए तो चिंता, भय, क्रोध, अशांति है और जन्म – मरण होता है |

इसके जप से आद्यशक्ति चेतना चित्त के दोषों को दूर कर देती है, चित्त को निर्मल कर देती है | सीधे लेट गये, यह जप किया | जब तक निद्रा न आये तब तक इसका प्रयोग करें | निद्रा आने पर अपने – आप ही छूट जायेगा | रात को जप करके सोने से सुबह तुम स्वस्थ, निर्भय, प्रसन्न होकर उठोगे |

भगवान के मंत्र हों और भगवान को अपना मानकर प्रीतिपूर्वक जप करें तो चित्त भगवदाकार होकर भगवदरस से पावन हो जाता है | भगवदरस के बिना नीरसता नहीं जाती |

स्वयं में व समाज में बदलाव लाने के प्रयास जारी रखें।

एक पाँच साल का मासूम सा बच्चा अपनी छोटी बहन को लेकर मंदिर के एक तरफ कोने में बैठा हाथ जोडकर भगवान से न जाने क्या मांग रहा था.
कपड़े में मेल लगा हुआ था मगर निहायत साफ, उसके नन्हे नन्हे से गाल आँसूओं से भीग चुके थे।
बहुत लोग उसकी तरफ आकर्षित थे और वह बिल्कुल अनजान अपने भगवान से बातों में लगा हुआ था।
जैसे ही वह उठा एक अजनबी ने बढ़ के उसका नन्हा सा हाथ पकड़ा और पूछा-
"क्या मांगा भगवान से"
उसने कहा-
"मेरे पापा मर गए हैं उनके लिए स्वर्ग,
मेरी माँ रोती रहती है उनके लिए सब्र,
मेरी बहन माँ से कपडे सामान मांगती है उसके लिए पैसे"।
"तुम स्कूल जाते हो"
अजनबी का सवाल स्वाभाविक सा सवाल था।
"हां जाता हूं" उसने कहा।
"किस क्लास में पढ़ते हो ?" अजनबी ने पूछा
"नहीं अंकल पढ़ने नहीं जाता, मां चने बना देती है वह स्कूल के बच्चों को बेचता हूँ, बहुत सारे बच्चे मुझसे चने खरीदते हैं, हमारा यही काम धंधा है" बच्चे का एक एक शब्द मेरी रूह में उतर रहा था ।
"तुम्हारा कोई रिश्तेदार"
न चाहते हुए भी अजनबी बच्चे से पूछ बैठा।
"पता नहीं, माँ कहती है गरीब का कोई रिश्तेदार नहीं होता,
माँ झूठ नहीं बोलती,
पर अंकल,
मुझे लगता है मेरी माँ कभी कभी झूठ बोलती है,
जब हम खाना खाते हैं हमें देखती रहती है,
जब कहता हूँ
माँ तुम भी खाओ, तो कहती है मेंने खा लिया था, उस समय लगता है झूठ बोलती है "
"बेटा अगर तुम्हारे घर का खर्च मिल जाय तो पढाई करोगे ?"
"बिल्कुलु नहीं"
"क्यों"
"पढ़ाई करने वाले गरीबों से नफरत करते हैं अंकल,
हमें किसी पढ़े हुए ने कभी नहीं पूछा - पास से गुजर जाते हैं"
अजनबी हैरान भी था और शर्मिंदा भी।
फिर उसने कहा
" हर दिन इसी इस मंदिर में आता हूँ, कभी किसी ने नहीं पूछा - यहा सब आने वाले मेरे पिताजी को जानते थे - मगर हमें कोई नहीं जानता
"बच्चा जोर-जोर से रोने लगा" अंकल जब बाप मर जाता है तो सब अजनबी क्यों हो जाते हैं ?"
मेरे पास इसका कोई जवाब नही था और ना ही मेरे पास बच्चे के सवाल का जवाब है।
ऐसे कितने मासूम होंगे जो हसरतों से घायल हैं
बस एक कोशिश कीजिये और अपने आसपास ऐसे ज़रूरतमंद यतिमो, बेसहाराओ को ढूंढिये और उनकी मदद किजिए......................... मंदिर मे सीमेंट या अन्न की बोरी देने से पहले अपने आस - पास किसी गरीब को देख लेना शायद उसको आटे की बोरी की ज्यादा जरुरत हो।

आपको प्रसंद आऐ तो सब काम छोडके ये मेसेज कम से कम एक या दो गुरुप मे जरुर डाले |
कही किसी गुरुप मे कोई ऐसा देवता ईन्सान मील जाऐ
कही ऐसे बच्चो को अपना भगवान मिल जाए |
कुछ समय के लिए एक गरीब बेसहारा कि आँख मे आँख डालकर देखे आपको क्या मेहसूस होता है
फोटो या विडियो भेजने कि जगह ये मेसेज कम से कम एक या दो गुरुप मे जरुर डाले|

*स्वयं में व समाज में बदलाव लाने के प्रयास जारी रखें।*
धन्यवाद

Friday 23 September 2016

मानव जीवन की सार्थकता

|| श्री हरी ॐ ||
 

1.प्रथम तो मनुष्य का शरीर मिलना कठिन है और यदि मिल जाये तो भी भारतभूमि में जन्म होना, कलियुग में होना तथा वैदिक सनातन धर्म प्राप्त होना दुर्लभ है | इससे भी दुर्लभतर शास्त्रों के तत्व और रहस्य बतलाने वाले पुरुषो का संग है | इसलिये जिन पुरुषो को उपयुक्त  संयोग प्राप्त हो गए है, वे यदि परमशांति और  परमआनंदायक परमात्मा की प्राप्ति से वंचित रहे तो इससे बढकर उनकी मूढ़ता क्या होगी |

2.चीटी से लेकर देवराज इंद्र की योनी तक को हम लोग भोग चुके है, किन्तु साधन न होने के कारण हमलोग भटक रहे है और जब तक तत्पर होकर साधन नहीं करेंगे तबतक भटकते ही रहेंगे |

3.मनुष्य-जन्म सबसे उतम एवं अत्यंत दुर्लभ और भगवान् की विशेष कृपा का फल है | ऐसे अमूल्य जीवन को पाकर जो मनुष्य आलस्य, भोग,प्रमाद और दुराचार में समय बिता देता है वह महान मूढ़ है | उसको घोर पश्चाताप करना पड़ेगा |

4. समय बड़ा मूल्यवान है | मनुष्य का शरीर मिल गया, यह भगवान की बड़ी दया है | अब भी यदि भगवद प्राप्ति से वंचित रह गए तो हमारे समान मुर्ख कौन होगा | हमे अपने अमूल्य समय को अमूल्य कार्य में ही लगाना चाहिये | भगवान की स्मृति अमूल्य है | इस प्रकार नित्य विचार करना चाहिये |

5.प्राप्त मनुष्य शरीर के दुर्लभ अवसर को यदि हमने हाथ से खो दिया तो फिर सिवा पछताने के और कुछ हाथ नहीं लगेगा |

6.भगवान ने हमें मुक्ति का पासपोर्ट दे दिया है | अब जो कुछ कमी है वह केवल हमारी और से है |

7.यह जीवन हमें सांसारिक भोगो में डूबकर रह जाने के लिए नहीं मिला है |

8.बारम्बार विचार करना चाहिये की आप किस लिए आये थे, यहाँ क्या करना चाहिये और आप क्या कर रहे है |

9.जब आपका शरीर छूट जाएगा तब शरीर और रूपये किस काम आवेंगे? सब कुछ मिटटी में मिल जायेगा |

नारायण   नारायण  नारायण

ईश्वर

ईश्वर के सानिध्य के बिना, ईश्वर की कृपा के बिना, ईश्वर के अनुभव -दर्शन के बिना मृत्यु-भय नहीं छूट सकता, भक्ति का वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं हो सकता … इसलिए प्रभु को खोजो हमने खोजा , हमने संसार के पदार्थो को ईश्वर माना , उनके पास गए , किन्तु वहा आनंद न मिला , रस न मिला …. वेदो मे आया -रसेन तृप्त: वह ईश्वर तो रस से तृप्त है , किन्तु ये पदार्थ तो रस से खाली मिले । इनको ईश्वर समझना हमारा भ्रम था ….. फिर इन रस-रिक्त पदार्थो से साधक का मन विरक्त हो जाता है , ऊब जाता है परीक्ष्य लोकान् कर्म्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायात्रास्त्यकृत: कृतेन । (मुण्डकोप०) कर्म्म से संचित लोगो (भोगो) की परीक्षा करके ब्रह्मज्ञानी दुखी हो उठता है और कहता है – “विनाशी पदार्थो से वह अविनाशी नहीं मिल सकता” किन्तु अपने अध्ययन एवं अनुभव के परीक्षण एवं चिंतन के पश्चात उसे परमतत्व की ओर प्रस्थान करने के मार्ग की प्रेरणा मिलती है , आभास होता है तब वह यत्न करता है ,और पाता है – दिव्ये ब्रह्मपूरे हवोष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठित: (मु०) अंतरात्मा इस हदयाकाश रूपी दिव्य ब्रह्मपुर मे विराजमान है । जिसकी खोज को बाहर भटक रहे थे वह तो अंदर ही बैठा है अतः आत्मनाssत्मानमभिसंविवेश – वह आत्मा के द्वारा परमात्मा मे प्रवेश करता है शरीर इंद्रियादिक को छोडकर आत्मा को उसमे लगाने का प्रयत्न करना चाहिए उपनिषद में आता है – वह अंतरात्मा अनेक प्रकार से प्रकट होता हुआ अंदर विचर रहा है, ओ३म् पद के द्वारा उसका ध्यान करो भगवान के अनंत गुण है , अतः उनके प्रत्येक गुण का प्रकाशक उनका एक नाम है इस कारण भगवान के अनंत नाम है । किन्तु उनका निज नाम ॐ है ….गूंगा भी इस ॐ पद का उच्चारण कर सकता है एक उपनिषद मे कहा भी गया है —– भगवान का ज्ञान न आँख से होता है , न वाणी से, न ही अन्य इंद्रियो द्वारा इसका ज्ञान होता है । कोरे तप , थोथे जप और कर्म से भी उसका बोध नहीं होता । ज्ञान द्वारा जो अपनी आत्मा को शुद्ध कर उस निर्विकार का ध्यान करता है , वह उसके दर्शन कर पाता है एक ऋषि ने भी कहा – न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मन: —-वहा आँख नहीं जा पाती, न वाणी की वहा गति है । वह तो मन की पाहुच से भी बाहर है … अतः आत्मनात्मानमभिसंविवेश – मे अपनी आत्मा द्वारा उस अंतरात्मा मे प्रवेश करता हू अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने भीतर विद्यमान आनंद सागर परम पवित्र रस-सरोवर मे डुबकी न लगाकर बाह्य गंदभरे तालो मे डुबकी लगा रहा है , किन्तु फिर भी समझता है कि वह सही मार्ग है , किन्तु फिर भी समझता है कि वह भक्ति मे तल्लीन है …. अज्ञान के कारण नहीं समझ पाता कि जिस फीके पानी को ही मधु मान वह नित पान किए जा रहे है ,वह उस ईश्वरीय अमृतमयी रस का एकांश भी नहीं है । अतः सभी शास्त्रो मे कहा गया है कि बिना ज्ञान के मनुष्य जिसकी आराधना करनी चाहिए उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान तथा उसके सच्चे आराधना का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । वह नहीं समझ पाएगा कि किसकी आराधना कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगी। यथार्थ ज्ञान ही हमे विषय-विष से बचाकर ब्रह्मामृत की ओर प्रेरित करता है …. और यह यथार्थ ज्ञान बाह्य कारणो पर निर्भर नहीं है …. वेदो का वैदिक ग्रंथो का अध्ययन करना होगा, चिंतन करना होगा मनन करना होगा…तत्पश्चात साधना एवं आराधना करनी होगी….ईश्वर स्वयं तुम्हें सत्यज्ञान से अवगत कराएंगे….और तुम जानोगे कि ब्रह्मामृत का सरोवर अपनी आत्मा मे ही बह रहा है… अतः डुबकी लगाने को अंदर जाना होगा…बाहर ये सरोवर है ही नहीं …… और जिस दिन उधर जाने की भावना अन्तःकरण में बलवती होगी….तब तुम्हारे विकार स्वतः नष्ट होने लगेंगे….विकार नष्ट होने पर शुद्ध हो तुम शीघ्र ही उस अविनाशी परमात्मा के हो जाओगे…..ज्योतिष्मत: पथो रक्ष, अभयं ते अर्वाक्………।ओ३म्। ।

ब्राह्मण कौन ?

- यास्क मुनि के अनुसार-जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः।वेद पाठात् भवेत् विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।
अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले,वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।
- योग सूत्र व भाष्य के रचनाकार पतंजलि के अनुसार
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥
अर्थात- ”विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जायँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता” (पतंजलि भाष्य 51-115)।
-महर्षि मनु के अनुसार विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥
अर्थात-शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता,वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं” (मनु; 11-35)
-महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार “जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण
नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो” (सन्दर्भ ग्रन्थ – महाभारत)
-महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार “जो निष्कारण (कुछ भी मिले एसी आसक्ति का त्याग कर के).

-वेदों के अध्ययन में व्यस्त हे और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय हे वही ब्राह्मण हे.”(सन्दर्भ ग्रन्थ – शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०, पराशर स्मृति)
-भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार “शम, दम, करुणा, प्रेम, शील (चारित्र्यवान),निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण हे” और “चातुर्वर्ण्य माय सृष्टं गुण कर्म विभागशः” (भ.गी. ४-१३)

इसमे गुण कर्म ही क्यों कहा भगवान ने जन्म क्यों नहीं कहा?
-जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार “ब्राह्मण वही हे जो “पुंस्त्व” से युक्त हे.जो “मुमुक्षु” हे. जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन हे. जो सरल हे. जो नीतिवान हे, वेदों पर प्रेम रखता हे, जो तेजस्वी हे,ज्ञानी हे, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदोका अध्ययन और अध्यापन कार्य हे, वेदों/उपनिषदों/दर्शन शास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण हे”(सन्दर्भ ग्रन्थ – शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह,आत्मा-अनात्मा विवेक)
किन्तु जितना सत्य यह हे की केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं हे. कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है यह भी उतना ही सत्य हे.इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हे जेसे…..
(1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे| परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीनचरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये|ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण२.१९)
(3) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे,प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
(5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए|पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया |(विष्णु पुराण ४.१.१३)
(6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(7) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए|(विष्णु पुराण ४.२.२)
(8) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(9) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(10) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(11) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु,
विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |
(12) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(13) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(14) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(15) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(16) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया |विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(17) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक हे के नहीं यह अलग विषय हे किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी हे उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी.वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं हे. अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कार तरफ वापस बढे.
“कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम”को साकारित करे.