Wednesday 7 September 2016

संगत साधु की, हरे कोटि अपराध

शर साधु-संतों का जब स्वागत कर रहे थे, पत्तलें बाँट रहे थे तब ऋषियों ने कहाः "कन्हैया ! तुम्हें यह सब करने की क्या जरूरत है ? तुम तो आदिनारायण हो ! यहाँ वसुदेव के बेटे होकर लीला कर रहे हो तो क्या हुआ ? हम तो तुम्हें पहचानते हैं। ये पत्तले बाँटने से और उठाने से तुमको क्या लाभ होगा ?"

श्रीकृष्ण कहते हैं- "पचास वर्ष की निष्कपट भक्ति से हृदय का अज्ञान नहीं मिटता है, लेकिन ब्रह्मवेत्ता सत्पुरूष की सेवा से वह कार्य हो जाता है। हजारों साधुओं में आप जैसे एकाध ब्रह्मज्ञानी महापुरूष भी मिल जाएगा तो मेरी सेवा सार्थक हो जाएगी। मेरे साथ जो सेवा कर रहे हैं उनका भी कल्याण हो जाएगा। इसलिए महाराज ! मुझे पैर धोने दो।"

श्रीकृष्ण के इन वचनों से स्पष्ट होता है कि पचास वर्ष की अपने ढंग की तपस्या, व्रत या नियम भी दो घड़ी के सत्संग की बराबरी नहीं कर सकते इसलिए तुलसीदास जी की बात हमको यथार्थ और सचमुच में प्रिय लगती हैः

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।।
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